Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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रचना
इनका एकमात्र योगसारप्राभृत नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जो प्रकाशित हो चुका है। यह ग्रन्थ ९ अधिकारोंमें विभक्त है-१, जीवाधिकार, २. अजीवाधिकार, ३. आस्रवाधिकार, ४. बन्धाधिकार, ५. संवराधिकार, ६. निर्जराधिकार,७. मोक्षाधिकार और ८. चारित्राधिकार और नवम अधिकारको नवाधिकार या नवमाधिकारके नामसे उल्लिखित किया है। इस अधिकारकी संजा चूलिकाधिकारके रूपमें की गयी है।
प्रथम अधिकारमें मङ्गलाचरणके अनन्तर स्वभावको उपलब्धिके हेतु जीव और अजीवके लक्षणोंके जाननेकी प्रेरणा की है, क्योंकि दो प्रकारके पदार्थोसे भिन्न संसारने तीसरे प्रकारका कोई नया नहीं है। सभी का अन्तर्भाव इन दो पदार्थों में हो जाता है । जीव-अजीवको वास्तविक रूपमें जान लेनेसे जीवकी अजीवमें अतुक्ति तथा आसक्ति नहीं रहती है और आत्मलीनतासे रागद्वेषका क्षय हो जाता है। अन्तर जीवके उपयोग लक्षण और उसके भेद-प्रभेदोंका निर्देश करके केवलज्ञान और केवलदर्शन नामके दोनों उपयोगोंका कर्मोके क्षयसे और शेष उपयोगोंका कर्मो के क्षयोपशमसे उदित होना बताया है। यात्माको ज्ञानप्रमाण, ज्ञानको ज्ञेयप्रमाण, सवंगत और ज्ञेयको लोकालोकप्रमाण बतलाकर ज्ञानको आत्मप्रदेशोंके तुल्य गिद्ध किया है । जान ज्ञेयको जानता हुआ भी ज्ञेयरूप परिणत नहीं होता है। आसार्यने इस अधिकारमें केवलज्ञानको त्रिकालगोचर, सभी सत्-असत् विषयों का ज्ञाता, युगपदभासक सिद्ध किया है।
आत्मा सम्यक्चारित्रको कब प्राप्त करती है, इस कथदके पश्चात् निश्चय और व्यबहारचारित्रका स्वरूप बतलाया है। इस प्रकार प्रथम अधिकारमें आत्माके शुद्धस्वरूपका निरूपण किया गया है।
दूसरे अधिकारमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पाँचों अजीवद्रव्योंका कथन किया है । ये पांचों अजीबद्रव्य परस्पर मिलते-जुलते एकदसरेको अपने में अवकाश देते हए कभी भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते। इनमें पदगलको छोड़कर शेष सब अमतिक और निष्क्रिय हैं । जीवसहित ये पाँचों द्रव्य मरलाते हैं, क्योंकि गुण पयंयवद्रव्यं इस लक्षणसे युक्त हैं। इसके पश्चात् द्रव्यको निर्युक्तिपरक लिखकर सभी द्रव्योंको सत्तात्मक कहा है।
पश्चात् पुद्गलके स्कन्ध, देश, प्रदेश और अणु मे चार भेद बतलाये गये हैं। सभी द्रव्योंके मतं और अमुर्तके भेदसे दो भेद बतलाकर उनका स्वरूपांकन किया है । कर्मरूप परिणत होनेवाली कर्मवर्गणाओंका भी प्रतिपादन किया
शुमार और सारस्वताचार्य : ३८५ २५