Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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"कल्क्यब्दे षट्शंताख्ये विनुतविभवसंवत्सरे मासिवे पञ्चम्यां शुक्लपक्षे दिनमणिदिवसे कुम्भलग्ने सुयोगे । सोभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटितभगणे सुप्रशस्तां चकार श्रीमच्चामुण्डराजो वेल्मुलनगरे गोम्मटेश प्रतिष्ठाम् ।।" अर्थात् कल्कि सं० ६०० में विभव संवत्सरमें चैत्र शुक्ला पंचमी रचिवारको कुम्भ लग्न, सौभाग्य योग, मृगशिरा नक्षत्र में, चामुण्डरायने वेल्गुलनगरमें गोम्मटेशकी प्रतिष्ठा करायी ।
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इस निर्दिष्ट तिथिके सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। घोषालने अपने वृहद्रव्यसंग्रह के अग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावना में उक्त तिथिको २ अप्रेल ९८० माना है | श्रीगोविन्द पैने १३ मार्च ९८९ स्वीकार किया है ! प्रो० हीरालाल - जीने २३ मार्च सन् १०२८ में उक्त तिथियोगको ठोक घटित बताया है । किन्तु प्रधानशास्त्रीने तीन निथिके घटित होनेकी चर्चा की है। इस तरह बावनीचरित्रमें निर्दिष्ट सम्बन्ध में विवाद प्रस्तुत किया है । हमारे नम्र मतानुसार भारतीय ज्योतिषकी गणना के आधार पर विभव संवत्सर चैत्र शुक्ला पंचमी रविवारको मृगशिर नक्षत्रका योग १३ माचं सन् ९८१ में घटित होता है । अन्य ग्रहोंको स्थिति भी इसी दिन सम्यक् घटित होती है | अतः मूर्तिका प्रतिष्ठाकाल सन् १८१ होना चाहिये ।
चामुण्डरायने अपने चामुण्डपुराण में मूर्तिस्थापना की कोई चर्चा नहीं की है । इससे यही अनुमान होता है कि चामुण्डपुराणके पश्चात् ही मूर्ति की प्रतिष्ठा की गयी है । रन्नने अपना अजितनाथपुराण शक सं० ९१५ में समाप्त किया है। उसमें लिखा है कि अतिमन्वेने गोम्मटेश्वरकी मूर्ति के दर्शन किये । अतः यह निश्चित है कि शक सं० ९१५ (वि० सं० २०५०) से पहले ही मूर्तिकी प्रतिष्ठा हो चुकी थी । यदि चामुण्डपुराणमें मूर्तिकी स्थापनाको कोई चर्चा न होने को महत्त्व दिया जाय, तो वि० सं० १०३५ और वि० सं० १०५० के बीचमें मूर्तिको प्रतिष्ठा माननी पड़ेगी, जिससे हमारे पूर्वकथनकी सिद्धि होती है । गंग राचमल्लका समय वि० सं० २०३१ - १०४१ तक है । भुजवलिशतकके अनुसार उन्हींके राज्यकालमें मूर्तिको प्रतिष्ठा हुई है । अतः मूर्ति स्थापनाका समय ई० सन् १८१ उपयुक्त जान पड़ता है। अतएव आचार्य नेमिचन्द्रका समय ई० सन्की दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध या वि० सं० ११वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है।
रचनाएं
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आचार्य नेमिचन्द्र आगमशास्त्रके विशेषज्ञ हैं । इनको निम्नलिखित रचनाएं प्रसिद्ध हैं
४१२ : तोर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा