Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 445
________________ भावचूलिकाधिकारमें कहानिक, शाक्षिक, मि, मोरि पारिणामिक इन पाँच भावों तथा इनके भेदोंका निरूपण करते हुए उनके स्वसंयोगी और परसंयोगी भंगोका गुणस्थानोंमें कथन किया है। इसके पश्चात् प्राचीन गाथा उद्धृत कर ३६३ मिथ्यावादियोंके मतोंका निर्देश किया है । त्रिकरणचूलिकाधिकारमें अधःकरण, अपूर्वकरण और अनवृत्तिकरण इन तोन करणोंका स्वरूप कहा गया है । ___ कर्मस्थितिरचनाधिकारमें प्रतिसमय बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंका आठों कर्मोमें विभाजन होनेके पश्चात् प्रत्येक कर्मप्रकृतिको प्राप्त कर्मनिषकोंकी रचना उसकी स्थिति के अनुसार आबाधाकालको छोड़कर हो जाती है । अर्थात् बन्धको प्राप्त हुए वे कर्मपरमाणु उदयकाल आनेपर निर्जीर्ण होने लगते हैं और अन्तिम स्थितिपर्यन्त बिखरते रहते हैं । उनको रचनाको ही कर्मस्थिति-रचना कहते हैं । इस गोम्मटसार कर्मकाण्डके स्वाध्याय द्वारा कर्मसाहित्यका सम्यक् बोध प्राप्त किया जा सकता है । त्रिलोकसार इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थमें १०१८ गाथाएं हैं। यह करणानुयोगका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसका आधार "तिलोयपण्णत्ती' और 'सत्त्वार्थवातिक' हैं। ग्रन्थ निम्नलिखित अधिकारों में विभक्त है १. लोकसामान्याधिकार २. भवनाधिकार ३. व्यन्तरलोकाधिकार ४. ज्योतिर्लोकाधिकार ५. वैमानिकलोकाधिकार ६. मनुष्य-तिर्यक्लोकाधिकार सामान्यलोकाधिकार में २०७ गाथाएं हैं। प्रारम्भमें लोकका स्वरूप बतलाया गया है । यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है, स्वभावनिवृत्त है, जीवाजीवोंसे सहित है और नित्य है। इस लोकमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, जोवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य जहाँ तक पाये जाते हैं, वहाँ तक लोक माना जाता है, उसके पश्चात् अलोकाकाश है और यह अनन्त है। लोकके कई आकार बतलाये गये हैं । अधोलोक अर्द्धमृदंगके समान है, कचलोक मृदंगके तुल्य है । यह लोक १४ राजुप्रमाण है । लोकके स्वरूपनिरूपणके पश्चात 'मान'का वर्णन अतषर और सारस्वताचार्य : ४२७

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