Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

View full book text
Previous | Next

Page 405
________________ · विधिसे कर्मों का उन्मूलन होता है, अतएव ध्यानकी महिमाका वर्णन किया गया है | ध्यानको बाह्यसामग्री के साथ ध्यानप्राप्तिके लिए बुद्धिका आगम, अनुमान और ध्यानाभ्यासरससे संशोधन आवश्यक बतलाया है । इस प्रकार इस अधिकारमें ध्यानकी विभिन्न स्थितियों का निरूपण आया है। अष्टम अधिकार में चारित्रका निरूपण है । इसमें भ्रमण बननेकी योग्यता और आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए श्रमणोंके २८ मूलगुणोंके नाम दिये गये हैं, जिनका योगी निष्प्रमाद रूपसे पालन करता है। जो इनके पालन करने में प्रमाद करता है, उस योगीको छेदोपस्थापक कहा है | श्रमणोंके दो भेद बतलाये हैं, सूरि और निर्यापक । इन दोनोंका विवेचन किया गया है। इस अधिकार में श्रमणों की स्वीकाकरण आा हे । नवम अधिकारमें मुक्तात्माकी सदानन्दरूप स्थितिका उल्लेख करते हुए चेतनस्वभावकी अविनश्वरतापर प्रकाश डाला गया है। योगोके योगका लक्षण बतलाकर योगसे उत्पन्न सुखकी विशिष्टता, सुख-दुःखका संक्षिप्त लक्षण और उस लक्षणकी दृष्टिसे पुण्य से उत्पन्न होनेवाले भोगों की भी दुःखरूप निर्दिष्ट किया है । संसारके विषयभोगोंकी निस्सारता तथा भोक्ताकी स्थितिका विवेचन किया है। भोग संसारसे सच्ची विरक्ति कब प्राप्त होती है और निर्वाणतत्त्वमें परमभक्ति किस प्रकार उपलब्ध होती है, इसे भी बतलाया है । इस प्रकार इस ग्रन्थ में आत्मोपलब्धिके साधन, विषयभोगोंको अस्थिरता और ध्यानकी महत्तापर प्रकाश डाला गया है। I योगसम्बन्धी ग्रन्थों में इस योगसारप्राभृतका महत्वपूर्ण स्थान है । निःमन्देह योगके अध्ययन, मनन और चिन्तनके लिए यह नितान्त उपादेय है । अमितगति द्वितीय I आचार्य अमितगति द्वितीय भी प्रथितयश सारस्वताचार्य है । ये माथुर संघके आचार्य थे । दर्शनसारके कर्ता देवसेनने अपने 'दर्शनसार' में माथुर संघको जैनाभासों में परिगणित किया है। इसे निः पिच्छिक भी कहा गया है, क्योंकि इस संघके मुनि मयूरपिच्छ नहीं रखते थे । यह संघ काष्ठासंघकी एक शाखा है । इस संघकी उत्पत्ति वीरसेनके शिष्य कुमारसेन द्वारा हुई है । अमितगति द्वितीयने अपनी धर्मपरीक्षा में, जो प्रशस्ति अंकित की है, उससे इनकी गुरुपरम्परापर प्रकाश पड़ता है वीरसेन, इनके शिष्य देवसेन, देवसेन के शिष्य अमितगति प्रथम, इनके श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३८७

Loading...

Page Navigation
1 ... 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471