Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 420
________________ पञ्चम प्रकरणका नाम सप्तति या सप्ततिका है। इसे सित्तरी भी कहते हैं। इस प्रकरणमें मूल कर्मों और उनके अवान्तर मेदोंके बन्धस्थान, उदयस्थान और स्तवस्थानोंका स्वतन्त्र रूपसे एवं चौदह जीवसमास और गण. स्थानोंके आश्रयसे भंगोंका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है । अन्तमें कोकी उपशमना और घरगना विवेच बावा है। सपा और सप्ततिका इन दोनों ही प्रकरणोंमें भंगोंका विवेचन करनेवाले पत्र प्राकृतपंचसंग्रहके तुल्य ही हैं। कर्मसिद्धान्तको अवगत करनेके लिये यह एक अच्छा साधनग्रन्थ है। उपर्युक्त ग्रन्थोंके अतिरिक लघु एवं बृहद सामायिक पाठ, जम्बूद्वीपप्राप्ति सार्द्धद्वयद्वीपप्राप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्राप्ति ग्रन्थ भी इनके द्वारा रचे गये माने जाते हैं । सामायिकपाठमें १२० पद्य हैं। इसमें सामायिकका स्वरूप, विधि और महत्त्व प्रसिपादित किया गया है। शेष चार अन्य बभी तक उपलब्ध नहीं हैं। अमृतचन्द्रसूरि सारस्वताचार्योंमें टीकाकार अमृतचन्द्रसूरिका यही स्थान है, जो स्थान संस्कृतकाव्यरचयिताओंमें कालिदासके टीकाकार मल्लिनाथका है। कहा जाता है कि यदि मल्लिनाथ न होते, तो कालिदासके अन्थोंके रहस्यको समझना कठिन हो जाता। उसी तरह यदि अमृतचन्द्रसूरि न होते, तो आचार्य कुन्दकुन्दके रहस्यको समझना कठिन हो जाता। अतएव कुन्दकुन्द आचार्यके व्याख्याताके रूपमें और मौलिक ग्रन्थरचयिताके रूपमें अमृतचन्द्रसूरिका महत्वपूर्ण स्थान है। निश्चयतः इन आचार्यको विद्वत्ता, वाग्मिता और प्राञ्जल शैली अप्रतिम है । इनका परिचय किसी भी कृतिमें प्राप्त नहीं होता है, पर कुछ ऐसे संकेत अवश्य मिलते हैं, जिनसे इनके व्यक्तित्वका निश्चय किया जा सकता है । ____ अध्यात्मिक विद्वानों में कुन्दकुन्दके पश्चात् यदि आदरपूर्वक किसीका नाम लिया जा सकता है, तो वे अमृतचन्द्रसूरि ही हैं। इन्होंने टोकाओंके अन्तमें जो संक्षिप्त परिचय दिया है उससे अवगत होता है कि ये बड़े निस्पृह आध्यास्मिक आचार्य थे। 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' के अन्तमें लिखा है-- वर्णः कृतानि चित्रः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि । वाक्यैः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ॥ २२६ ॥ अर्थात् नाना प्रकारके वर्णोसे पद बन गये, पदोंसे वाक्य बन गये और वाक्योंसे यह पवित्र शास्त्र बन गया। इसमें मेरा कर्तृत्व कुछ भी नहीं है। ४०२ : तीयंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा

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