Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 423
________________ 'मिध्यात्ववेदरागा' आदि पद्य 'उक्तञ्च' रूपसे उद्धृत किया है। अतएव अमृतचन्द्र, शुभचन्द्रसे भी पूर्ववर्ती हैं और पद्मप्रभ मलधारिदेवने शुभचन्द्रके ज्ञानार्णवका एक श्लोक उद्धृत किया है । अतएव शुभचन्द्र पद्मप्रभसे पूर्ववर्ती हैं । पद्मप्रभका समय वि० की १२ वीं शतीका अन्त माना जाता है । अतः अमृतचन्द्रका समय इसके पहले होना चाहिये । हमारा अनुमान है कि इनका समय ई० सन्की १०वीं शताब्दीका अन्तिम भाग है। पट्टावली में अमृतचन्द्रके पट्टारोहणका समय वि० सं० ९६२ दिया है, जो ठीक प्रतीत होता है । पुरुषार्थं - सिद्धयुपाय में जयसेन के धर्मरत्नाकर के कई पद्य पाये जाते हैं और धर्मरत्नाकरका रचनाकाल वि० सं० १०५५ है, अतएव अमृतचन्द्रकी यह उत्तरसीमा समय है । रचनाएँ अमृतचन्द्रसूरिको निम्नलिखित रचनाएँ मानी जाती हैं । इनकी रचनाओंको दो कोटिमें रखा जा सकता है— मौलिक और टीकाग्रन्थ । - मौलिक रचनाएँ – १ पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २ तस्वार्थसार, ३ समयसार कलश । टीकाग्रन्थ–४ समयसारटोका, ५ प्रवचनसारटीका, ६ पंचास्तिकायटीका | १. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय -यह श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थ है । इसमें २२६ पद्य हैं। आर्यावृत्तमें लिखा गया है। प्रारम्भके आठ पद्यों में ग्रन्थकी उत्थानिका दो गयी है । इस उत्पानिका में निश्चय और व्यवहार नयका स्वरूप, कर्मोका कर्त्ता और भोका आत्मा, जीवपरिणमन एवं पुरुषार्थ सिद्धयुपायका अर्थ बतलाया गया है । ग्रन्थ पांच भागोंमें विभक्त है १. सम्यक्त्व-विवेचन, २. सम्यकज्ञानव्याख्यान, ३, सम्यक् चारित्रव्याख्यान, ४. सल्लेखनाधर्मव्याख्यान, ५. सकलचारित्रव्याख्यान 1 यह आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुखस्वरूप है, चेतनायुक्त है, अमूर्तिक है और स्पर्श, गंध, रस, वर्णसे रहित है 1 यह अनादिकाल से अशुद्ध हो रही है । रागादिरूप भावकर्मोंके कारण पुद्गलद्रव्य आत्मामें प्रविष्ट हो कर्मबन्धरूप परिणमन करता है। कर्मबन्धकी इस प्रक्रियाका वर्णन करते हुए कहा है जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेने ॥ १२ ॥ जिस समय जीव राग-द्वेष- मोभावरूप परिणमन करता है, उस समय उन भावोंका निमित पाकर पुद्गलद्रव्य स्वतः ही कर्मअवस्थाको धारण कर लेते हैं। जो प्रशस्त रागादिरूप परिणमन करता है उसके शुभ कर्मबन्ध होता है १. पुरुषार्थं सि०, पद्य १२ । श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ४०५

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