Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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पश्चात् जीवके संसारी और मुक्तके भेदसे दो भेद कर संसारी जीवोंका वर्णन गुणस्थान आदि बीस प्ररूपणाओके द्वारा किया है।
तृतीय अधिकारमें अजीवतत्त्वका वर्णन करते हुए पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव इन छह द्रव्योंका स्वरूप, इनके देश, काल, पुद्गलोंके भेद, अणु और स्कन्धका स्वरूप, पुद्गल द्रव्यको पर्याएं तथा स्कन्ध बननेकी प्रक्रियाका वर्णन किया गया है।
चतुर्थ अधिकारमें आस्रवतत्वका वर्णन है। कर्मोके आस्रवोंका विस्तारसहित वर्णन किया है। शुभास्रवके वर्णनप्रसंगमें व्रतोंका निर्देश आया है। पंचम अधिकारमें बन्धका स्वरूप, बन्धके कारण और बन्धके भेद पणित हैं। इसमें कर्मोंको मल तथा उत्तर प्रकृतियों के नाम, लक्षण तथा उनकी स्थिति आदिका कथन किया है।
षष्ठ अधिकारमें संवरतत्त्वका वर्णन है। इसमें संवरका स्वरूप तथा उसके कारणभूत गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह, जय और चारित्रका वर्णन किया गया है। साम अधिकारमें निर्जराका वर्णन आया है। इसमें निर्जराके भेद तथा निर्जराके कारणभूत तपोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है।
अष्टम अधिकारमें मोक्षका वर्णन है। मोक्षके लक्षण तथा उसकी प्राप्तिके क्रमका सुन्दर विवेचन किया है।
नवम अधिकारमें ग्रन्थका उपसंहार करते हुए प्रमाण, नय, निक्षेप और निर्देश आदिके द्वारा सात तत्त्वोंको जानकर मोक्षमार्गका आश्रय लेनेका कथन किया है। निश्चय और व्यवहारके भेदसे मोक्षमार्ग दो प्रकारका है। निश्चयमोक्षमार्ग साध्य है और व्यवहारमोक्षमार्ग साधन है। अपनी शुद्धात्माकी जो श्रद्धा, ज्ञान और उपेक्षण-राग-द्वेषसे रहित प्रवर्तन है वह निश्चयमोक्षमार्ग है और देव-शास्त्रगुरुका श्रद्धान व्यवहारमोक्षमार्ग है। व्यवहारमोक्षमार्ग अन्तमें चलकर निश्चयमोक्षमार्गमें विलीन हो जाता है और उससे साक्षात् मोक्षकी प्राप्ति होती है । अतः मोक्षप्राप्तिका साक्षात् कारण निश्चयमोक्षमार्ग है। व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका साधक होनेके कारण परम्परासे मोक्षमार्ग है । अतएव साधकको निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गको अपनाकर मोक्षकी प्राप्ति करनी चाहिये। बताया है-- स्यात्सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररूप:
पर्यायार्थादेशतो मुक्तिमार्गः ॥ एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः
स्याद् द्रव्यादेशतो मुक्तिमार्ग:। १. तत्त्वार्थसार, वर्णीग्रम्पमाला संस्करण ९४२१ । ४१० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा