Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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जह पक्केण य चक्की छपखंड साहियं अविग्घेण ।
तह मइ-चक्केण मया छवखंडं साहियं सम्म । जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्ररत्नसे भारतवर्षके छह खण्डोंको बिना किसी विघ्न-बाधाके अधीन करता है, उसी तरह मैंने (नेमिचन्द्रने) अपनी बुद्धिरूपी चक्रसे षट्क्षण्डोंको अर्थात् षट्खण्डागभसिद्धान्तको सम्यकरीतिसे अधीन किया है।
सिद्धान्तग्रन्थोके अभ्यासीको सिद्धान्त चक्रवर्तीका पद प्राचीन समयसे ही दिया जाता रहा है। वीरसेनस्वामीने जयघवलाको प्रशस्ति में लिखा है कि भरतचक्रवर्तीकी आजाके समान जिनकी भारती षट्खण्डागममें स्खलित नहीं हुई, अनुमान है कि वोरसेनस्वामीके समयसे ही सिद्धान्तविषयज्ञको सिद्धान्तचक्रवर्ती कहा जाने लगा है। निश्चयत: आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तप्रन्थोंके अधिकारी विद्वान थे। यही कारण है कि उन्होंने धवलासिद्धान्तका मंथन कर गोम्मटसार; और जयषवलाटीकाका मंचन कर लब्धिसार ग्रन्थकी रचना की है। जीवन-परिचय
आचार्य नेमिचन्द्र देशीयगणके हैं । इन्होंने अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिको अपना गुरु बतलाया है । कर्मकाण्डमें आया है
जस्स य पायपसायेणणंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो । वीरिंदणदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरु ॥
णमिऊण अभयदि सुदसायरपारगिदणंदिगुरु ।
बरवीरगंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छं ॥ अर्थात् जिनके चरणप्रसादसे वीरनन्दि और इन्दनन्दिका वत्स अनन्तसंसाररूपो समुद्रसे पार हो गया, उन अभयनन्दिगुरुको में नमस्कार करता हूँ ।
अभयनन्दिको, श्रुतसमुद्रके पारगामी इन्द्र नदिःरुको बोर वीरनन्दिको नमस्कार करके प्रकृतियों के प्रत्यय-कारणको कहूंगा ।
लब्धिसारमें लिखा है-“वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिके वत्स एवं अभयनन्दि
१. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३९७ । २. वहीं, गापा ४३६ । ३. बही, गाया ७८५ ।
४१८ : तीर्थकर महावीर और उनकी बापार्य परम्परा