Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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__आत को ही मार नियमों का वर्गीकरा लिया है तथा समयपाइडको समयसार नाम देनेका श्रेय भी इन्हींको प्राप्त है। टीकाको नाटकके समान अडोंमें विभाजित किया है। प्रथम अङ्कसे पूर्वके प्रारम्भिक भागको पूर्वरम कहा गया है । जिस प्रकार नाटकमें पात्रोंका निष्कमण और प्रवेश होता है उसी प्रकार ग्रहांपर भी प्रवेश और निष्क्रमण कराया गया है। प्रथम अङ्क जीवाजीवाधिकार है। इसमें जीवको अजीवसे भिन्न बतलाया है और अन्तमें लिखा है-"जोवाजीवो पृथग्भूत्वा निष्क्रान्ती" अर्थात् जीव और अजीव पृथक्-पृथक् होकर चले गये। दूसरे कर्तृकर्म अधिकारके आरम्भमें लिखा है-"जीव-अजीव ही कर्ता और कर्मका वेष धारणकर प्रवेश करते हैं तथा अन्तमें लिखा है-“जीव और अजीव कर्ता एवं कमंका वेष छोड़कर निकल गये।" तीसरे पुण्य-पार अधिकारके आदिमें लिखा है-"एक ही कर्म पुण्य और पापके रूपमें दो पात्रोंका वेष धारण करके प्रवेश करता है" बोर अन्तमें लिखा हैपुण्य और पापके रूपसे दो पात्रोंका वेषधारण करनेवाला कर्म एक पात्ररूप होकर निकल गया अर्थात् कर्ममें पुण्य-पापका भेद मिथ्या है, दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है । इसी प्रकार आस्रव, संवर, निर्जस. बन्ध और मोक्ष अधिकारोंमें उन-उन नत्वोंका प्रवेश और निर्गमन कराया गया है । वस्तुत: यह संसार एक रंगमंच है जिसपर जोव और अजीव नानारूप धारण करके अभिनय करते हैं। यहां अभिनयका आचरण करनेवाला या सूत्रधार पौद्गलिक कर्म है।
यह टोका पर्याप्त विस्तृत और गहन है। यहां उदाहरणार्थ कुछ पंकियों उद्धृत की जाती हैं---
"अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वज्ञानेन, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन, स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृसिस्वभावमप्यहत्तया अनुभवन् कर्मफलं वेदयते । मानी तु शुद्धात्मशानं सद्भावात्स्वपरयोर्वि भागज्ञानेन स्वपरयोविभागदर्शनेन स्वपरयोविभागपरिणत्या च प्रकृतिस्वाभावा दपसृतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतयानुभवन् कर्मफलमुदितं जेयमात्रत्वात् जानापेव न पुनस्तस्याहत्तयाग्नुभवितुमशक्यत्वाद्वेचते ॥१६॥ प्रवचनसार-दीका
प्रवचनसारकी टोकाका नाम तस्वदीपिका है। यह टीका भी प्रांजल शैलीमें समयसारफी टोकाके समान ही लिखी गयी है। इससे भी उनकी आध्यात्मिक रसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपको तकंपूर्वक सिद्ध करनेकी असाधारण शक्ति, तत्त्वतत्त्वार्थका गम्भीरज्ञान, निश्चय व्यवहारका क्रमबद्ध ४१६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्म-परम्परा