Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 421
________________ इसमें अमृतचन्द्रसुरिको कितनी निस्पृहता और आध्यात्मिकता टपक रही है । अतः वे अपनेको आत्मभावोंका ही कर्ता मानते हैं, परवस्तुका नहीं । इससे उनकी आध्यात्मिकता तो सिद्ध होती ही है, साथ ही वे आचार्य या मुनिपदसे विभूषित भी व्यक्त होते हैं। जीवन-परिचय पंडित आशाधरने अमृतचन्द्रसूरिका उल्लेख ठक्कुरपदके साथ किया है 'एतच्च विस्तरेण ठक्कुरामृतचन्द्रसूरिविरचितसमयसारदीकायां दृष्टव्यम् ।' अनगारधर्मामृत टीका, पृ० ५८८ । ___ यहाँ 'ठक्कुर' शब्द विचारणीय है । ठक्कुरका प्रयोग जागीरदार या जमीदारोंके लिए होता है । हरिभद्रसुरिने अपनी 'समराइच्चकहा' में ठक्कूर पदका प्रयोग किया है। यह पद क्षत्रिय और ब्राह्मण इन दोनोंके लिए समान रूपमें प्रयुक्त होता है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अमृतचन्द्रसूरि क्षत्रिय थे या ब्राह्मण । इतना निश्चित है कि वे किसी सम्मानित कुलके व्यक्ति थे । ___ संस्कृत और प्राकृत इन दोनों ही भाषाओंपर इनका पूर्ण अधिकार था। ये मूलसंघके आचार्य थे। समय-विधार पण्डित आशाघरजीने अमृतपन्द्रसूरिका उल्लेख किया है और आशाघरजीका समय वि० सं० १३०० है । अतः अमृतचन्द्रसूरिका समय वि० सं० १३०० के पहले होना चाहिये । अमृतचन्द्रसूरिने प्रवचनसारको टीकामें चार गाथायें उद्धृत की हैं । “णिद्धा णिद्धेण" और "णिद्धस्स णिद्धेण" ये दो गाथाएं क्रमसे एक साथ उद्धृत की हैं और 'जावदिया वयणवहा' तथा 'परसमयाणं वयणं' आदि दो गाथाएं 'तदुत्तम्' कहकर क्रमसे एक साथ टीकाके अन्त (पृ० ३७२) में उद्धत हैं। पहलेकी दोनों गाथाएं गोम्मटसार जीवकाण्डको क्रमशः ६१२ तथा ६१४ संख्यक हैं और दूसरी दोनों गाथाएँ गोम्मटसार कर्मकाण्डको ८९४ और ८९५ संख्यक हैं। इन गाथाओंके सम्बन्धमें डॉ० उपाध्येने लिखा है कि चूंकि गोम्मटसार कर्मकाण्डमें वे दोनों गाथाएं उसी क्रमसे पायी जाती हैं और उनमें शाब्दिक समानता भी है । अतएव यह अनुमान लगाना असंगत नहीं है कि अमतचन्द्रने इन गाथाओंको गोम्मटसार कर्मकाण्डसे लिया है । बहुत सम्भव है कि ये दोनों गाथाएं 'धवला' और 'जयधवला' टीकामें भी मिल जाएं। इन दोनोंमेंसे 'जावदिया वयणबहा' गाथा सन्मतितर्क (३।४७) में भी पायी जाती है। डॉ० उपाध्येने लिखा है कि अमृतचन्द्र सिद्धसेनके सन्मतितकसे परिचित्त श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ४०३

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