Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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और जो अप्रशस्त राग-द्वेष-मोहरूप परिणमन करता है उसके पापबन्ध होता है । आचार्य ने कमंबन्धके प्रति नियसकारण कपन बारसे हुए कहा है
परिणममानस्य चितश्चिदात्मकः स्वयमपि स्वर्भावः ।
भवति हि निमित्तमात्रं पोद्गलिक कर्म तस्यापि ॥१३॥ इस प्रकार राग-द्वेष, कर्म बन्धके स्वरूप विश्लेषणके पश्चात् श्रावकधर्मका ध्याख्यान किया गया है। आरम्भमें रत्नत्रयको मोक्षमार्ग बतलाकर गहस्थको यथाशक्ति इसके सेवन करनेपर जोर दिया है। और बताया है कि सम्यक्त्वके बिना ग्यारह अंगपर्यन्त किया हुआ पठन-पाठन ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है तथा महावतादिकोंको साधनासे अन्तिम ग्रेवेयकपर्यन्त बन्धयोग्य विशुद्ध परिणामोंसे भी असंयमी कहलाता है। परन्तु सम्यक्त्वसहित थोड़ा-सा ज्ञान भी सम्यकशान और अल्पत्याग भी सम्यक्चारित्र कहलाता है। जिस प्रकार अंकरहित शून्य कुछ भी कार्यसाधक नहीं होता, उसी प्रकार सम्यक्त्वरहित ज्ञान और चारित्र भी कार्यसाधक नहीं होता। इस तरह सम्यक्त्वका महत्त्व बतलाते हुए उसके स्वरूपका विवेचन किया है--
जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कत्तव्यम् ।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ।। जीव-अजीव आदि तत्त्वरूप पदार्थोंका विपरीत आग्रह रहित श्रद्धान करना सम्यक्त्व कहलाता है।
सम्यक्त्वको परिभाषाके अनन्तर निःशंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टित्व, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन आठों अंगोंके स्वरूपका विवेचन किया है 1
पदार्थका जो स्वरूप जिनागममें मिलता है, उसे यथावत् जानना सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनमें कार्यकारणभावका सम्बन्ध है। सम्यग्ज्ञान कार्य है और सम्यग्दर्शन कारण । इन दोनोंके एक कालमें उत्पन्न होनेपर भी दीपक और प्रकाशके समान कार्य-कारणभाव घटित होता है । अतएव तत्त्वार्थश्रद्धान प्राप्त करनेके अनन्तर संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित हो पदार्थोके स्वरूपको अवगत करने के लिए प्रवृत्त होना चाहिये। ग्रन्थका ज्ञान आठ प्रकारसे प्राप्त किया जाता है-१. शब्दाचार, २. अर्थाचार, ३.
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१. पुरुषा०, पद्य १३। २. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, पद्म २२ । ४०६ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्य परम्परा