Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 419
________________ जिन अवस्थाविशेषों में जीवोंका अन्वेषण किया जाता है, उन्हें मार्गणा कहते हैं | मार्गणाओंके चौदह भेद हैं-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संजी और आहारमार्गणा | प्रथम प्रकरणमें इन १४ मार्गणाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है । २०वौं उपयोगप्ररूपणा है। वस्तुके स्वरूपको जानने के लिए जीवका जो भाव प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं। उपयोग दो प्रकारका होता हैसाकारोपयोग और निराकारोपयोग | निराकारोपयोगके चार भेद हैं।। इस प्रकार प्रथम जीवसमासप्रकरणमें २० प्ररूपणाओं द्वारा जीवोंकी विविध दशाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया है। दूसरा प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामका है। इसमें कोंकी मूलप्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियोंका वर्णन किया गया है। मलप्रकृतियां आठ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आय, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनकी उत्तर प्रकृतियों क्रमशः पांच, नौ, दो, अट्ठाईस, घार, तिरानवे, दो और पाँच हैं। सब उत्तरप्रकृत्तियाँ १४८ होती हैं। इनमेंसे बन्धयोग्य १२० प्रकृतियाँ, उदययोग्य १२२ प्रकृतियां, उद्वेलन ११ प्रकृतियाँ, ध्रुवबन्धी ४७, अध्रवबन्धी ११, वर्तमान प्रकृतियाँ ६२ एवं सत्त्वयोग्य १४८ प्रकृतियां हैं। पञ्चसंग्रहके पाँचों प्रकरणोंमें यह सबसे छोटा प्रकरण है। कर्मस्तव नामका तीसरा प्रकरण है। इसके अन्य नामान्तर बन्धस्तव और कही कर्मबन्धस्तव भी हैं । इस प्रकरणमें १४ गुणस्थानोंमें बंधनेवाली, नहीं बंधने वाली और बन्धव्युच्छित्तिको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंका तथा सत्वयोग्य, असत्वयोग्य और सत्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृत्तियोंका विवेचन किया गया है। अन्तमें चूलिकाके अन्तर्गत नौ प्रश्नोंको उठाकर उनका समाधान करते हए बतलाया गया है कि किन प्रकृतियोंकी बन्धव्युग्छित्ति, उदयव्युच्छित्ति और सखन्युच्छित्ति पहिलं, पीछे या साथमें होती है। इस नौ प्रश्नरूप चूलिकामें कर्मप्रकृतियोंके बन्ध, उदय और सत्त्वव्युच्छित्ति सम्बन्धी कितनी ही ज्ञातव्य बातें बतलाई गयी हैं। चौथे प्रकरण का नाम शतक है । इस प्रकरण में १४ मार्गणाओंके आधारसे जीवसमास, गुणस्थान, उपयोग और योगका वर्णन करनेके अनन्तर कर्मबन्धके कारणभत मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग वन्धप्रत्ययोंका विस्तारसे वर्णन किया है। साथ ही मिथ्यात्व आदि मुणस्थानोंमें जघन्य और उत्कृष्ट प्रत्ययोंकी अपेक्षा सम्भव संयोगी भंगोंका विस्तृत विवेचन किया है। तत्पश्चात् शानावरणादि आठ कर्मोके विशेष बन्धप्रत्ययोंका वर्णन किया गया है। श्रुतपर और सारस्वताचार्य : ४०१ २६

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