Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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है । आत्मा सद्भावमें ही मोक्ष और मोक्षके कारणीभूत तत्वोंकी सिद्धि सम्भव है ।
प्रथम अध्यायमें मोक्षमार्ग के निरूपणके साथ-साथ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानका विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है । बताया है
ज्ञानमेव स्थिरीभूतं समाधिरिति चेन्मतम् । तस्य प्रधानधर्मत्वे निवृत्तिस्तत्क्षयाद्यदि । तदा सोपि कुतो ज्ञानादुक्तदोषानुषंगतः समाध्यंतरतश्चेन्न तुल्य पर्यनुयोगतः ' ।।
स्पष्ट है कि आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थ सूत्र के प्रमेयोंका अत्यन्त सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन इस ग्रन्थमें किया है। प्रथम सूत्र के वार्तिकोंमें मोक्षोपायके सम्बन्धमें अत्यन्त विष्ना साथ विचार किया है। जीवका अतिम ध्येय मोक्ष है । बन्धनबद्ध आत्माको मुक्ति के अतिरिक्त और क्या चाहिए ? अतः मुक्ति साधनभूत रत्नत्रय मार्गका सुन्दर और गहन विवेचन किया है । अनन्तर सम्यग्दर्शनका स्वरूप, भेद, अधिगमोपाय तत्वोंका स्वरूप और भेद, एवं सत्-संख्या क्षेत्रादि तत्त्वज्ञानके साधनों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। पश्चात् सम्यग्ज्ञानका स्वरूप, सम्यग्ज्ञानके भेद, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान और केवलज्ञानके विषय, क्षेत्र, स्वामी आदिका निर्देश किया है । इस सन्दर्भ में सर्वज्ञसिद्धिका भी प्रकरण आया है, जिसमें मीमांसक द्वारा उठाई गयी शंकाओंका समाधान भी किया है ।
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ज्ञान बाह्य अर्थों को किस प्रकार विषय करता है, इस आशंकाका उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानन्दने लिखा है
श्रुतेनार्थं परिच्छिद्य वर्त्तमानो न बाध्यते । अक्षजेनैव तत्तस्य बाह्यार्थालंबना स्थितिः ॥
सामान्यमेव श्रुतं प्रकाशयति विशेषमेव परस्परनिरपेक्ष मुभयमेवेति वाशंकामपाकरोति ।
अनेकान्तात्मकं वस्तु संप्रकाशयति श्रुतं । सबोधत्वाद्ययाक्षोत्यबोध इत्युपपत्तिमत् ॥ नयेन व्यभिचारश्चेत्र तस्य गुणभावतः । स्वगोचराधर्माधर्म्मार्थप्रकाशनात् ॥
१. तस्वार्थ श्लोकवार्तिक, प्रथम अध्याय, श्लोक ५१-५२, पृ० १७ ।
३६२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा