Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 390
________________ जं कम दिढबद्ध जीवपएसेहि तिविहजोएण। तं जलफासणिमित्ते कह फट्टइ तित्थण्हाणेण ।। मलिणो देहो णिच्वं देही पुण णिम्मलो सयारुवी। को इह जलेण सुज्झइ तम्हा हाणे ण हु सुद्धी जलसे शुद्धि होती है, मांससे पितरोंकी तृप्ति होती है, पशुबलिसे स्वर्ग मिलता है और गोयोनिके स्पर्शसे धर्म होता है, इन चार ब्राह्मणधर्मके प्रमुख सिद्धान्तोंकी समीक्षा करते हुए बताया है कि जलस्नानसे यदि समस्त पापोंका प्रक्षालन सम्भव हो, ती नदी, समुद्र और तालाबों में रहनेवाले बलवर बोव भी स्वर्गको प्राप्त कर लेंगे । कर्म-मेलसे मलिन इस आत्माको जलसे शद्धि नहीं हो सकती है, जो जलसे शुद्धि मानता है, वह अच्छा विचारक नहीं है। आत्माकी शद्धि तप, इन्द्रियनिग्रह और रत्नत्रयके द्वारा होती है। जिस प्रकार अग्निके संयोगसे स्वर्ण पवित्र हो जाता है, उसी प्रकार अनशन, ऊनोदर आदि तपोंके करनेसे जीव भी पवित्र हो जाता है । जो व्यक्ति विषय और कषायमें संलग्न हैं और राग-द्वेषको उत्पन्न करनेवाले महकायोंमें आसक्त हैं उनकी जलस्नानसे शुद्धि नहीं हो सकती। कषायरहित, व्रतनियम और शीलसे युक्त व्यक्ति जलस्नानके बिना भी आत्माको पवित्र कर सकता है। मांसद्वारा पितरोंकी तृप्ति मानने वाला व्यक्ति भो विवेको नहीं है । हिंसा, क्रूरता और निर्दयता करने वाला व्यक्ति चारों गतियोंके दुःखोंको उठाता है। जो मांस द्वारा श्राद्ध करके पितरोंकी तृप्ति चाहता है वह व्यक्ति भी बालूसे तेल निकालना चाहता है । अतएव मांसको न तो दान ही माना जा सकता है, और न इससे पितरोंकी तृप्ति ही हो सकती है । जो श्राद्धद्वारा पितरोंकी तृप्ति मानता है, वह भ्रममें है । किसीके भोजनसे किसीकी तृप्ति नहीं हो सकती। यदि पिता भोजन करता है, तो पुत्रका पेट नहीं भरता, और पुत्र भोजन करता है तो पिताका पेट नहीं भरता। जो भोजन करता है, वही तप्त हो सकता है, अन्य कैसे तुप्त हो सकता है ? जो यह मानता है कि पाप करके नरक जाने पर पिताको पिण्डदानद्वारा पुत्र स्वर्ग भेज सकता है, उसके यहाँ जो कार्य करने वाला है उसे फल न मिल कर अन्यको होगा। अतः कृतनाश और अकृताभ्यागम नामक दोष आयगा । इस प्रकार उक्त चारों सिद्धान्तोंकी समीक्षा करते हुए गीता, महाभारत आदि ग्रन्थोंसे ही समर्थनके लिए प्रमाण उद्धृत किये हैं। विपरीतमिथ्यात्वके पश्चात् एकान्तमिथ्यात्वको समीक्षा की गयी है। 143 १. मावसंग्रह, गाथा १७-२० । ३७२ : तीर्थंकर महावीर बौर उनको आचार्य परम्परा

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