Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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परप्रभावतः
श्रुतस्यावस्तुवे थिरके संवृतेश्चेद् वृथैवेषा परमार्थस्य निश्चितेः ॥
नमु स्वत एव परमार्थव्यवस्थितेः कुतश्चिदविद्याप्रक्षयान पुनः श्रुतविक ल्पात् । तदुक्तं "शास्त्रेषु प्रक्रिया भेदे र विद्येयोपवण्यते । अनागमविकल्पा हि स्वयं विद्योपवत्तंत" इति तदयुक्तं परेष्टतत्वस्याप्रत्यक्ष विषयत्वात्तद्विपरीतस्यानेकान्तात्मनो वस्तुनः सर्गदा परस्याप्यवभासनात् । लिङ्गस्य त्वस्याङ्गीकरणीयत्वात् ।
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अर्थात् श्रुतज्ञान द्वारा अर्थकी परिच्छिति कर प्रवृत्ति करनेवाला अर्थपुरुष क्रिया करनेमें उसी प्रकार बाधा नहीं प्राप्त करता है, जिस प्रकार इन्द्रियजन्य मतिज्ञान द्वारा अर्थको अवग्रह कर प्रवृत्ति करने वाला पुरुष बाधाको प्राप्त नहीं करता है। श्रुतज्ञान सामान्यका प्रकाशन करता है, विशेषका प्रकाशन करता है या निरपेक्ष दोनोंका प्रकाशन करता है ? इस शंकाका उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानन्द ने बताया है -- सामान्यविशेषात्मक अनेकान्तरूप वस्तुको श्रुतज्ञान अवगत करता है । जिस प्रकार इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ सांव्यवहारिक प्रत्यक्षज्ञान अनेकान्तात्मक अर्थका प्रकाशन करता है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान सामान्यविशेषात्मक वस्तुको प्रकाशित करने में समर्थ रहता है । अतः "अनेकान्तात्मकं वस्तु श्रुतं प्रकाशयति सद्द्बोधत्वात् " यह अनुमान समीचीन है। इसका नयके साथ भी दोष नहीं है, क्योंकि नयज्ञान मुख्यरूपसे एक धर्मको जानता है, पर गौणरूप से वस्तु के अन्य धर्मो का भी वह ज्ञाता है । अतः श्रुतज्ञानका नयज्ञानके साथ दोष नहीं आता ।
यदि श्रुतज्ञानको वस्तुभूत पदार्थका ज्ञापक नहीं माना जाय तो प्रतिवादी या शिष्यों को स्वकीय तत्वोंका ज्ञान किस प्रकार कराया जा सकेगा । अतएव श्रुतज्ञान द्वारा ज्ञात वस्तु प्रमाणभूत है। इस प्रकार विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें प्रमेयोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
८. अष्टसहस्त्री
जेन न्यायका यह अत्यन्त महनीय ग्रन्थ है । इस एक ग्रन्यके अध्ययन कर लेनेपर अन्य ग्रन्थ पढ़नेकी आवश्यकता नहीं । विद्यानन्दने स्वयं ही यहप्रकट किया है
१. तत्वार्थश्लोकवार्तिक, गांधी नाथारंग जैन ग्रन्थमाला प्रथम अध्याय, सूत्र २६ श्लोक १५-१८ तथा गद्यांश, पृ० २४९
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : ३६३