Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
श्रोतव्याटसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः ।
विज्ञायेत ययैव हि स्वसमय-परसमयसद्भावः ।।' अर्थात् हजार शास्त्रोंको सुननेसे क्या, केवल अष्टसहस्रोको सुन लेनेसे, स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्तोंका ज्ञान हो जायगा ।
यह समन्तभद्रविरचित आप्तमीमांसा अपरनाम देवागमस्तोत्रपर लिखा गया विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण भाष्य है। विद्यानन्दने बड़ी हो कुशलताके साथ अफलंकदेव द्वारा रचित अष्टशतोको अष्टसहस्रीमें अन्तःप्रविष्ट कर लिया है। यह न्यायको प्राञ्जल भाषामें रचा गया दुरूह और जटिल ग्रन्थ है । स्वयं विद्यानन्दने इसे कष्टसहस्रो कहा है । उन्होंने लिखा है
'कष्टसहस्रो सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र में पुष्यात्'२ इस ग्रन्थमें एकादश नियोग, विधि और भावनावाद और उनका निरसन, चार्वाकमत, तत्वोपालववाद, संवेदनाद्वैत, चिनादेत, ब्रह्माद्वत, सर्वज्ञाभाव, अनुमानद्वारा सर्वसिद्धि, महदसवंतसिद्धि आदि अनेक विषयों का समावेश किया गया है। यह गन्ध दश परिवाने बम है। प्रथमपरिच्छेद सबसे बड़ा है और आधा ग्रन्थ इसी में समाप्त है ।
प्रथमपरिच्छेदमें अनुमान द्वारा सर्वशको सिद्धिके पश्चात् माव, अभाव, भावाभवरूप, तस्वका निराकरण कर अनेकान्तात्मक वस्तुको सिद्धि की गयी है। इस सन्दर्भमें भावापह्नववादी बौद्ध और अत्यन्ता भावप्रागभाव और प्रध्वंसाभाव अस्वीकार करनेवाले सांख्य मतमें दूषण दिया गया है। वस्तुतः इस अध्यायमें नैयायिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध, मीमांसक आदि दर्शनोंका वस्तुतस्वके सम्बन्ध में विचार किया गया है। द्वितीय परिच्छेदमें द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत आदिका विचार किया है। तृतीयपरिच्छेदमें क्षणिकवादमें दोषोंका प्रतिपादन कर कार्यकरिणादि समन्वित कथञ्चित्क्षणिक वस्तुको सिद्धि को गयी है। प्राग्भावको सर्वथा अभाव न मानकर कश्चित सद्भावरूप सिद्ध किया गया है । वैशेषिक और नेयायिकाभिमत अवयव-अवयवी का विचार किया गया है । चतुर्थ में वैशेषिकाभिमत भेदेकान्तका खण्डन कर कथंचित् मेंदाभेदात्मक वस्तुको सिद्धि की है । पंचम परिच्छेद में बौद्धको अपेक्षासे सर्वथा अनापेक्षिक वस्तुका निरसन किया है । षष्ठ परिच्छेदमें बस्तुकी सिद्धिके लिए प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीनों प्रमाणोंकी सिद्धि की गयी है। वेद१. मष्टसहस्री, पृ० १५७ ॥ २. अष्टसहली, अन्तिम प्रशस्ति, पृ० २९५ । ३६४ : तीर्थंकर महावीर और चनको आचार्य-परम्परा