Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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अन्तर्गत कृतिअनुयोगद्वारके आदिमें सूत्रकारने ४४ मंगलसूत्र लिखे हैं और ४५ वे सूत्रसे ग्रन्थकी उत्थानिकाके रूप आग्रायणीय पूर्व के पञ्चम वस्तु अधिकारके अन्तर्गत कर्मप्रकृतिप्राभृतके २४ अनुयोगद्वारोंका निर्देश किया है। वीरसेन स्वामीने इन मंगलसूत्रोंको लेकर एक लम्बी चर्चा की है। इस चर्चास सोन निष्कर्ष निकलते हैं:
१. भूतबलिने मंगलसूत्रोंकी रचना स्वयं नहीं की। परम्परासे प्राप्त महाकर्मप्रकृतिप्राभृत्तके मंगलसूत्रोंका संकलन किया है।
२. षट्थण्डागममें महाकर्मप्रकृतिप्राभूतके अर्थका ही निबन्धन नहीं किया है; अपितु शब्द भी ग्रहण किये गये हैं ।
३. भूतबलि का नहीं, प्ररूपक हैं । अतः षट्खण्डागमका द्वादशांग वाणीके साथ साक्षात् सम्बन्ध है।
इस तरह स्पष्ट है कि आचार्य भूतबलि मट्टाकर्मप्रकृतिप्राभनके शानी एवं मर्मज्ञ विद्वान थे। छपखण्डागमका वर्ण्य विषय एवं संक्षिा विवेचन
यह ग्रन्थ छह खण्डोंमें विभक्त है१. जीवट्ठाण । २. खुद्दाबन्ध । ३. बंधसामितविचय । ४. वेयणा। ५. बम्गणा। ६. महाबंध ।
१. 'जीवाण' नामक प्रथम-खण्डमें जोवके गुण-धर्म और नानावस्थाओंका वर्णन आठ प्ररूपणाओंमें किया गया है । ये माठ प्ररूपणाएं-सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व हैं। इसके अनन्तर नौ चूलिकाएं हैं, जिनके नाम प्रकृतिसमुत्कीर्तन, स्थानसमुत्कीर्तन, प्रथम महादण्डक, द्वितीय महादण्डक, तृतीयमहादण्डक, उत्कृष्टस्थिति, जघन्यस्थिति, सम्यक्त्वोत्पति और गतिअगति हैं। सत्प्ररूपणाके प्रथम सूत्र में पञ्चनमस्कार मन्त्रका पाठ है । इस प्ररूपणाका १. "तत्थेदं कि णिजदमाहो अणिबद्धमिदि......."तदो सिद्ध णिवद्धमंगलपि । उबरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु इत्यादि ।" -घट्सण्डागम, पवला टीका, पुस्तक ९, पृ० १०३-१०४ :
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ५९