Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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तीसरे गुणस्थानमें क्षायोपभिक भाव होता है । यत्त: इस गुणस्थानमें सम्यक्-मिथ्यात्वप्रकृतिके उदय होनेपर श्रद्धान और अश्रद्धानरूप मिश्रभाव उत्पन्न होना है। उसमें जो श्रद्धानांश है वह सम्यक्त्वगुणका अंश है और जो अश्रद्धानांश है वह मिथ्यात्वका अंश है। अतएन सम्यकमिथ्यात्वभावको क्षायोपमिक माना गया है। चतुर्थ मणस्थानमें औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशामिक ये तीन भाव पाये जाते हैं । यतः यहाँ पर दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम, क्षय और क्षयोपशम ये तीनों ही संभव है।
आश्केि चा: नस्ल मोहनीयवर्मन उदय, उपशम, क्षय आदि से उम्पन्न होते हैं। अतएव इन गुणस्थानोंमें अन्य भावोंके पाये जानेपर भी दर्शनपोहनीयकी अपेक्षासे भावोंकी प्ररूपणा की गई है। चतुर्थ गुणस्थान तक जो असंयमभाव पाया जाता है वह चारित्रमोहनीयकर्मक उदयसे उत्पन्न होनेके कारण औयिक भाव है। पर यहाँ उमको विवक्षा नहीं की गयी है !
पञ्चम गणस्थानसे द्वादश गणस्थान तक आठ गणस्थानोके भावोंका कथन चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयोपशम, उपशम और क्षयकी अपेक्षासे किया गया है। पञ्चम, षष्ट और सप्तम गुणस्थान में चारित्रमोहके क्षयोपशमसे क्षायोपशमिक भाव होते हैं। अष्टम, नवम, दशम और एकादश इन चार उपशामक गुणस्थानों में चारित्रमोहके उपनामसे औपमिक भाव तथा क्षपकश्रेणी सम्बन्धी अष्टम, नबम, दशम और द्वादश इन चार गुणस्थानों में चारित्रमोहनीयके क्षयसे क्षायिक भाव होता है। प्रयोदश और चतुर्दश गुणस्थान में जो क्षायिक भाव पाये जाते हैं वे घातियाकर्मोंके क्षयसे उत्पन्न हुए समझना चाहिए। गुणस्थानों के समान ही मार्गणास्थानों में भी भावोंका प्रतिपादन किया गया है।
अल्पबहुल्य-प्ररूपणा ३८२ सूत्र हैं | नानागुणस्थान और मार्गणागुणस्थानवी जोबोंको संख्याका हीनाधिकत्व इस प्ररूगणामें वर्णित है । अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें उपशमसम्यक्त्वी जोव अन्य सब स्थानोंकी अपेक्षा प्रमाणमें अल्प और परस्पर तुल्य होते हैं। इनसे अपूर्वकरणादि तोन मुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दष्टि जीव संख्यात गणित हैं । क्षीणकषाय जीवोंको संख्या भी इतनी हो है। सयोगकेवली संयमको अपेक्षा प्रविश्यमान जोवोंसे संख्यात गुणित हैं।
उपर्युक्त आठ प्ररूपणाओंके अतिरिक्त जीवस्थानको नौ चूलिकाएं हैं। प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामकी चूलिकामै ४६ सूत्र हैं | जीवके गति, जाति मादिके रूपमें जो नाना भेद उपलब्ध होते हैं उनका कारण कर्म है। कर्मका विस्तारपूर्वक विवेचन इस चूलिकामें आया है । ६४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा