Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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न मृत्युरपि विद्यते प्रकृतिमानुषस्येव ते, मृतस्य परिनिर्वृतिम मसुनर्जन्मवत् । जरा च न हि यद्वपुर्विमलके वलोत्पत्तित्तः, प्रभृत्य रुजमेकरूपमवतिष्ठते प्राङ् मृतेः ' ॥
हे प्रभो ! साधारण मनुष्योंके समान आपकी मृत्यु भी नहीं होती है । यतः जन्ममरण होनेसे निर्वाणको स्थिति घटित नहीं हो सकती है । अतएव न आपका पुनर्जन्म होता है, न मरण । अतएव आप जन्ममरणातीत हैं । निर्मल केवलज्ञानकी उत्पत्ति होनेसे जरा – वृद्धावस्थाजन्य कष्ट भी प्राप्त नहीं होता है । यतः वृद्धावस्थाका होना ही सम्भव नहीं है । और न कभी रोगका ही कष्ट आपको होता है। घातिया कर्मोंके नष्ट होते ही आप जन्म जरा मरणसे मुक्त हो जाते हैं ।
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तीर्थंकरमें लौकिक अभ्युदयके साथ निःस्संगता अपरिग्रहता भी पायी जाती है । अभ्युदय और अपरिग्रह ये दोनों विरोधी धर्म हैं । अतः एकाश्रयमें इन दोनों का साहचर्य किस प्रकार सम्भव है? इसी तथ्यको लेकर कविने विरोधाभास अलङ्कार द्वारा अर्हन्तके गुणोंपर प्रकाश डाला है
सुरेन्द्रपरिकल्पितं बृहदन सिहासन', तथाऽऽतपनिवारणत्रयमपोल्लसच्चामरम् |
वशं च भुवनत्रयं निरुपमा च निःसंगता, न संगतमिदं द्वयं त्वयि तथापि संगच्छते ॥
इन्द्र द्वारा प्रदत्त बहुमूल्य सिंहासन, आतप दूर करनेके लिये छत्रत्रय और चामर सुशोभित होते हैं । त्रिलोककी अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मा आपको प्राप्त हैं । तो भी आप अपरिग्रही हैं। लक्ष्मीका सद्भाव और अपरिग्रहत्व ये दोनों विरोधी धर्म हैं, एक साथ नहीं रह सकते हैं, तो भी ये दोनों आपमें पाये जाते हैं । तात्पर्य यह है कि वीतरागी प्रभुके अन्तरंग रूपमें केवलज्ञानादि लक्ष्मी है और बहिरंग में देवों द्वारा किये गये अतिशयोंके कारण सिंहासन, छत्र, चमर, आदि वैभव विद्यमान है । अतएव उसका अपरिग्रहत्वके साथ किसी भी प्रकारका विरोध नहीं है |
१. प्रथम गुच्छक, पात्रकेसा रस्तो पद्म २७ पु० २८८ । २. वही, पद्म ६, पृ० २८५ ।
२४२ : तीर्थंकर महावोर और उनको आचार्य - परम्परा