Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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है, कमका क्षय नहीं होता, ऐसा आर्यशान्ति मानते हैं । बन्दना, निन्दा, प्रतिक्रमण आदिको पुण्यका कारण बतलाकर एकमात्र शुद्धभाषको है उपादेय बतलाया है । यतः शुद्धोपयोगीके हो संयम, शील और तप सम्भव है । जिसको सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त है, उसीके कर्मों का क्षय होता है । अतः शुद्धोपयोग ही प्रधान है । चित्तकी शुद्धिके बिना योगियोंका तीर्थाटन करना, शिष्य-प्रशिष्यों का पालन-पोषण करना सब निरर्थक है, जो जिन लिंग धारण कर भी परिग्रह रखता है, वह वमनके भक्षण करनेवालेके समान है । नग्नवेष धारण कर भी भिक्षामें मिष्टान भोजन या स्वादिष्ट भोजनकी कामना करना दोषका कारण है। आत्मनिरीक्षण और बारमशुद्धि सर्वदा अपेक्षित है । योगसार
योगसार में १०८ दोहे हैं । वयं विषय प्रायः परमात्मप्रकाशके तुल्य ही हैं । इन दोहोंमें एक चौपाई और दो सोरठा भी सम्मिलित है। अपभ्रंश भाषामे लिखा गया यह ग्रन्थ एक प्रकारसे परमात्मप्रकाशका सार कहा जा सकता है।
इसके प्रारम्भमें भी आत्माके उन्हीं तीनों भेदोंका निरूपण आया है, जिनका परमात्मप्रकाशमें निर्देश किया जा चुका है। बताया है कि यदि जीव, तू आत्माको आत्मा समझेगा, तो निर्वाण प्राप्त कर लेगा । किन्तु यदि तु परपदार्थों को आत्मा मानेगा, तो संसारमें भटकेगा हो ।
कुन्दकुन्दते कर्मविमुक्त आत्माको परमात्मा बतलाते हुए उसे ज्ञानी, परमेष्ठी, सर्वश, विष्णु, चतुर्मुख और बुद्ध कहा है । योगसारमें भी उसके जिन, बुद्ध, विष्णु, शिव आदि नाम बतलाये है। जोइन्दुने भो कुन्दकुन्दको तरह निश्चय और व्यवहार नयोंके द्वारा आत्माका कथन किया है। योगसारमें ये दोनों ही दृष्टिय विशेषरूपसे विद्यमान हैं
णिएइ ।
देहा- देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं हाउ महू पsिहाइ इहु सिद्धे भिक्ख भमेह ॥
ahar कहा है कि देव न देवालय में है, न तोर्थो में । यह तो शरीर
१. बोमसार, वोहा १२
२. पाणी सिब परमेट्ठी सम्वष्णू विन्लू चउमूहो बुढो ।
अप्पो वि य परमप्पो कम्पदिमुक्को य होह फूयं ॥ भावपाहुड, फक्टन संस्करण,
गाथा १५० ।
३. योगसार, गाथा ४३ ।
तघर और सारस्वताचार्य २५१