Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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गया और उनके शिष्य जिनसेन द्वितीयने व्यवशेष जयघवलाटोका ४०,००० श्लोकप्रमाण लिखकर पूरी की ।
भट्टारक पदवीको प्राप्त वीरसेनस्वामी साक्षात् केवलोके समान समस्त विद्याओंके पारगामी थे। उनकी भारती' - दिव्यवाणी भारती— भरतचक्र वर्तीको आशाके समान षट्खण्डमें प्रवर्तित थी । अर्थात् जिस प्रकार षट्खण्डपृथ्वीपर भरत चक्रवर्तीको आज्ञाका अबाधगतिसे पालन किया जाता था, उसी प्रकार आचार्य वीरसेनकी वाणीका भी सञ्चार छह खण्डरूप षट्खण्डागम नामके परमागममें सब ही विषयोंमें निविवादरूपसे मान्य है। उन्होंने मूल ग्रन्थमें आये हुए विषयोंकी बहुत स्पष्ट व्याख्या की है, जिसका खण्डन कोई नहीं कर सकता है। चक्रवती भरतकी आज्ञा जहाँ सम्पत्ति - लक्ष्मीवन्तोंको प्रसन्न करनेवाली थी, वहीं वीरसेनकी मधुर वाणी समस्त प्राणियोंको प्रमुदित करनेवाली थी । भरतकी आज्ञाका सञ्चार यदि उनके द्वारा आक्रान्त समस्त पृथ्वी पर था, तो उनकी वाणोका सञ्चार कुशाग्र बुद्धिके कारण समस्त विषयोंमेंसिद्धान्त, न्याय एवं व्याकरण आदि शास्त्रोंमें था । उनकी स्वाभाविक प्रज्ञा-अदृष्ट और पदार्थोको अवगत करने रूप योग्यताको देखकर विज्ञजनोंको सर्वज्ञके विषयमें आशङ्का नष्ट हो गयी थी । यतः जब एक व्यक्ति आगम द्वारा इतना बड़ा ज्ञानी हो सकता है, तो अतीन्द्रियप्रत्यक्षज्ञानधारी सर्वज्ञ समस्त पदार्थों का ज्ञाता यदि है, तो इसमें कौन-सा बाश्चर्य है। बताया है-
यं प्राहुः प्रस्फुरद्बोधदी घितिप्रसरोदयः । श्रुतकेवलिनं प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रमणसत्तमम् ॥ यस्य नैसगिकों प्रज्ञां दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीम् । जाताः सर्वज्ञसद्भावे निरारेका मनीषिणः ॥ -- जयधवलाप्रशस्ति, पद्य २२-२१ ।
स्थिति-काल
आचार्यं वोरसेनका स्थिति-काल विवादास्पद नहीं है, क्योंकि उनके शिष्य जिनसेनने उनको अपूर्णं जयघवलाटीकाको शक संवत् ७५९ की फाल्गुन शुक्ला दशमीको पूर्ण किया है। अतः इस तिथि के पूर्व ही वीरसेनाचार्यका समय होना चाहिए और उनकी घवलाटीकाकी समाप्ति इससे बहुत पहले होनी चाहिए | यह टीका जयतुङ्गदेवके राज्यमें समाप्त हुई थी । राष्ट्रकूट १. प्रीणितप्राणिसम्पत्तिराकान्तःशेषगोचरा
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भारती भारतीवाज्ञा षट्खण्ये यस्य नास्खलत् ॥
– जयपनलाप्रशस्ति ।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ३२३