Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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अवग्रहस्य वैविध्यात् । द्विविधोऽवग्रहो विशदाविशदावग्रहभेदेन । तत्र विशदो निर्णयरूपः अनियमेनेहावाय-धारणाप्रत्ययोत्पत्तिनिबन्धनः'। यहाँ अवग्रह ' निर्णयरूप है या अनिर्णयरूप । प्रथम पक्षमें उसका अवायमें अन्तर्भाव होना चाहिये, पर ऐसा सम्भव नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर उसके संशयको उत्पत्तिके अभावका प्रसंग आयमा । तथा निर्णयके विपर्यय और अनध्यवसाय रूप होनेका विरोध भी है | अनिर्णयस्वरूप माननेपर अवग्रह प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होनेपर उसका संशय, विपयर्य और अनध्यवसायमें अन्तर्भाव होगा? उक्त शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि अवग्रह दो प्रकारका है विशदावग्रह और अविशदावग्रह । इस प्रकार तर्कपूर्वक विषयका प्रस्तुतीकरण किया गया है। ४. पाठकशैली
जिस प्रकार कोई पाठक-शिक्षक अपने छात्रको विषय समझाते समय जानकी विभिन्न दिशाओंसे तथ्योंका चयन कर उदाहरणों और दृष्टान्तों द्वारा विषयबोध कराता है तथा अपने अभिमतकी पुष्टि के लिए प्रामाणिक व्यक्तियोंके मतोंको उद्धरणके रूप में उपस्थित करता है। ठीक इसी प्रकारको धवलाटीकाको शैली है। कठिन शब्दों और वाक्योंके निर्व वन एक कुशल प्राध्यापककी शैली में निबद्ध किये गये हैं। ५. सर्जकशैली
'धवलाटीका' टीका होनेपर भी, एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। आचार्य वीरसेनने इस टीकाको टीका या भाष्यके रूपमें ही प्रथित नहीं किया है, बल्कि एक स्वतन्त्र ग्रन्थके रूपमें विषयको उपस्थित किया है। स्वतन्त्रग्रन्थकर्ता और भाष्यप्रणेतामें मल अन्तर यह होता है कि स्वतन्त्रग्रन्थरचयिता विषयकी अभिव्यन्जना अपने क्रमसे निश्चित शैलीमें प्रस्तुत करता है, साथ ही मौलिक तथ्योंको स्थापना भी करता चलता है । विषयप्ररूपणके लिए उसके समक्ष किसी भी तरहका अवरोध या अन्य कोई बन्धन नहीं रहता है। भाष्य या विवृतिकारके समक्ष मूल-ग्रन्थकार द्वारा निरूपित विषयोंको सीमा एवं उनके प्रतिपादनके मार्गमें विभिन्न प्रकारके अवरोध उपस्थित रहते हैं । अतः टीकाकारमें परवशानुवतित्त्व पाया जाता है। विवृति-लेखक स्वतन्त्र मतकी स्थापनाके लिए भीतरसे बेचैन रहता है, पर उसको सोमा उसे आगे बढ़नेसे रोकती है। आचार्य वीरसेनमें परवशानुवर्तित्त्व रहनेपर भी स्वतन्त्र रूपसे कर्म-सिद्धान्त एवं विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं के निरूपणको पूर्ण क्षमता है। यही कारण है १. षट्पण्डागम, धवला पु० ९, पृ० १४४-१४५ । ३३४ : तीपंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा