Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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समाप्ति इससे पहले होनी चाहिये । इस प्रकार गुणभद्रका समय भी ई० सन्को दशम शताब्दि मानने में किसी प्रकारकी बाधा नहीं आतो है। वास्तव में वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र-इन तीनों आचार्यों का साहित्यिक व्यक्तित्व अत्यन्त महनीय है और तीनों एक दूसरेके अनुपूरक हैं। योरसेनके अपूर्ण कार्यको जिनसेनने पूर्ण किया है और जिनसेनके अपूर्ण कार्यको गुणभद्ने । रचनाएँ
जिनसेनाचार्य काव्य, व्याकरण, नाटक, दर्शन, अलङ्कार, आचार, कर्मसिद्धान्त प्रभृति अनेक विषयों के बहुज विद्वान थे। इनकी केवल तीन ही रचनाएँ उपलब्ध हैं । वर्धमानचरितकी सुचना अवश्य प्राप्त होती है, पर यह कृति अभी तक देखने में नहीं आयी है ।
१, पार्वाभ्युदय २. आदिपुराण
३. जयवबलाटीका १. पाश्र्वाभ्युदय'
यह कालिदासके मेघदूत नामक काव्यकी समस्यापूर्ति है। इसमें कहीं मेघदतके एक और कहीं दो पादोंको लेकर पद्य-रचना की गयी है । इस काव्यग्रन्थमें सम्पूर्ण मेघदूत समाविष्ट है । अतः मेघदूतके पाठशोधनके लिए भी इस ग्रन्थका मूल्य कम नहीं है।
दीक्षा धारण कर तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्रतिमायोगमें विराजमान हैं। पूर्व भवका विरोधी कमठका जीव शम्बर नामक ज्योतिष्कदेव अवधिज्ञानसे अपने शत्रुका परिज्ञान कर नानाप्रकारके उपसर्ग देता है। इसी कथावस्तुको अभिव्यञ्जना पाश्र्वाभ्युदय में की गयी है। शृंगाररससे ओत-प्रोत मेघदूतको शान्तरसमें परिवर्तित कर दिया गया है । साहित्यिक दृष्टिसे यह काव्य बहुत सुन्दर और काव्यगुणोंसे मंडित है। इसमें चार सर्ग हैं--प्रथम सर्गमें ११८, द्वितोय सगंमें ११८, तुतीयमें ५७ और चतुर्थ में ७१ पद्य हैं। इस काव्यमें शम्बर (कमठ) यक्षके रूपमें कल्पित है । कविता अत्यन्त प्रौढ़ एवं चमत्कारपूर्ण है । यहाँ उदाहरणार्थ एक-दो पद्य उद्धृत किये जाते हैं .
तन्त्रीमार्दा नयनसलिल: सारयित्वा कथंचित
स्वाङ्गुल्यः कुसुममृदुभिर्वल्लरीमस्पृशन्ती । १. पाश्र्वाभ्युदय, निर्णय सागर प्रेस. बम्बई ।
३४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा