Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
वर्धमानपुराणोद्यदादित्योक्ति गभस्तयः । प्रस्फुरन्ति गिरीशान्तः स्फुटस्फटिक भित्तिषु ।।
जिन्होंने परलोकको जीत लिया है और जो कवियोंके चक्रवर्ती हैं उन वीरसेनगुरुकी कलङ्करहित कीर्ति प्रकाशित हो रही है। जिनसेनस्वामीने पार्श्वनाथ भगवान के गुणोंकी स्तुति बनायी है- पाश्र्वभ्युदयकी रचना की है, बही स्तुति उनकी कीत्तिका वर्णन कर रही है। इन जिनसेनके वर्धमानपुराण रूपो उदित होते हुए सूर्य की उक्तिरूपी रश्मियाँ विद्वद् पुरुषोंके अन्तःकरणरूपी स्फटिक भूमिमें प्रकाशमान हो रही है ।
उक्त सन्दर्भ में प्रयुक्त 'अवभासते', 'सङ्कीर्तयति', 'प्रस्फुरन्ति' जैसे वत्तंमानकालिक क्रियापद हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेनका इनको समकालीन सिद्ध करते हैं । हरिवंशपुराणकी रचना शक संवत् ७०५ ( ई० सन् ७८३) में पूर्ण हुई है। अतः जिनसेनस्वामीका समय ई० सन्की आठवीं शतीका उत्तरार्द्ध है । जयधवलाटीकाकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि इसकी समाप्ति जिनसेनने शक संवत् ७५९ फाल्गुन शुक्ला दशमकिं पूर्वामें की है। इस टीकाको वीरसेनस्वामीने प्रारम्भ किया था, पर वे ४० हजार श्लोकप्रमाण हो सके थे। अपने गुरुके इस अपूर्ण कार्यको जिनसेनने पूर्ण किया है । जिनसेनने आदिपुराणका प्रारम्भ अपनी वृद्धावस्था में किया होगा । इसी कारण वे इसके ४२ पर्व हो लिख सके | अतः जयजवलाटीकाके अनन्तर आदिपुराणकी रचना मानने से जिनसेनका अस्तित्व ई० सन्की नवम् शर्ती तक माना जा सकता है । गुणभद्रने उत्तरपुराणको समाप्ति ई० सन् ८९७ में की है ।
यह पहले ही लिखा जा चुका है कि जिनसेनाचार्य के वित्र्य गुणभद्रने आदिपुराण ४३ पर्वके चतुर्थं पद्यसे समाप्तिपर्यन्त कुल १६२० इलोक र हैं। महापुराणके द्वित्तीय भागस्वरूप उत्तरपुराणको गुणभद्रने पूर्ण किया है। आदिपुराण में आदितीर्थङ्करका जीवनवृत्त है और उत्तरपुराण में अजितनाथ करो महावीपर्यन्त २३ तीर्थकर १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ बलभद्र और प्रतिनारायण तथा जीवन्वर स्वामी आदि विशिष्ट पुण्यात्मा पुरुषोंके कथानक अंकित किये गये हैं। उत्तर पुराण के अन्त में गुणभद्रक शिष्य लोकसेन द्वारा लिखित प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि शक संवत ८२० श्रावण शुक्ला पंचमी गुरुवार को इस ग्रन्थकी पूजा भी गयी। अतः उत्तरपुराणकी १. हरिवंशपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, ११३९ - ४३ |
तर और सारस्वताचार्य : ३३९