Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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१५. सूत्रकारके वंशानुवतित्व रहनेपर भी स्वतन्त्ररूपसे कम-सिद्धान्त एवं दार्शनिक सिद्धान्तोंका निरूपण ।
वीरसेनाचार्यने अकेले वह कार्य किया है, जो कार्य महाभारत के रचयिताने किया है। महाभारतका प्रमाण एक लक्ष श्लोक है और यह टीका भी लगभग इतनी ही बड़ी है । अतएव 'यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तद्वचिद्' उक्ति यहाँ भी चरितार्थ है।
जिनसेन द्वितीय
आचार्य जिनसेन द्वितीय, श्रुतधर और प्रबुद्धाचार्योके बोचकी कड़ी होनेके कारण इनका स्थान सारस्वताचार्यों में परिगणित है। ये प्रतिभा और कल्पनाके अद्वितोय धनी हैं। यही कारण है कि इन्हें 'भगवत् जिनसेनाचार्य' कहा जाता है। श्रत या आगम ग्रन्थोंकी टोका रचनेके अतिरिक्त मुलग्रन्थरचयिता भी हैं। इनका पाण्डित्य साहित्य-गगनमें भास्करके समान निरन्तर प्रकाशित है । जीवन-परिता
इनके वैयक्तिक जीवनके सम्बन्धमें विशेष जानकारी अप्राप्त है। जयधवला टोकाके अन्तमें दो गयो पद्य-रचनासे इनके व्यक्तित्वके सम्बन्धमें कुछ जानकारी प्राप्त होती है। इन्होने बाल्यकालमें (आबद्धकर्ण-कर्णसंस्कारके पूर्व) ही जिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी। कठोर ब्रह्मचर्यको साधना द्वारा वाग्देवीको आराधनामें तत्पर रहे । इनका शरीर कृश था, आकृति भी भव्य और रम्य नहीं थी। बाह्य व्यक्तित्वके मनोरम न होनेपर भी तपश्चरण, ज्ञानाराधन एवं कुशाग्र बद्धिके कारण इनका अन्तरङ्ग व्यक्तित्व बहुत ही भव्य था। ये जान और अध्यात्मके अवतार थे 1 इनको जन्म देनेका गौरव किस जाति-कुलको प्राप्त हुआ, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।
जिनसेन मूलसंघके पञ्चस्तुपान्वयके आचार्य हैं । इनके गुरुका नाम वीरसेन और दादागुरुका नाम आर्यनन्दि था | वीरसेनके एक गुरुभाई जयसेन थे। यही कारण है कि जिनसेनने अपने आदिपुराणमें 'जयसेन का भी गुरुरूपमें स्मरण किया है । जिनसेनके सतीर्थ दशरथ नामके आचार्य थे । उत्तरपुराणको प्रशस्तिमें गुणभद्राचार्य ने बताया है कि जिस प्रकार चन्द्रमाका सघर्मी सूर्य होता है, उसी प्रकार जिनसेनके सधर्मी या सतीथं दशरथ गुरु थे, जो कि ससारके पदार्थोंका अवलोकन करानेके लिए अद्वितीय नेत्र थे। इनकी वाणीसे जगत्का स्वरूप
३३६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा