Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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गाथाएं गोम्मटसारमें उपलब्ध होती हैं। कुछ गाथाएँ 'त्रिलोकसार', 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' और 'वसुतन्दिश्रावकाचार में भी पायी जाती हैं। ये सब ग्रन्थ धवलाटीकाके पश्चात् रचे गये है। अतः हमाग सोता है कि इन प्रान गाथाओंका स्रोत एक ही रहा है। उस एक ही स्रोतसे वोरसेनाचार्यने गाथाएं ग्रहण की हैं और उसी स्रोतसे अन्य ग्रन्थरचयिताओंने भी । अतएव वीरसेनाचार्यका वैदुष्य बहुशके रूपमें स्पष्टतया अवगत होता है । ज्योतिष एवं गणित विषयक निर्देश
आचार्य वीरसेन ज्योतिष, गणित, निमित्त आदि विषयोंके भो ज्ञाता थे। ज्योतिषको अनेक महत्त्वपूर्ण चर्चाएं इनकी टोकामें आयी हैं। ५ वीं शताब्दोसे लेकर ८ वीं शताब्दी तक ज्योतिषविषयक इतिहास लिखनेके लिए इनको यह रचना बड़ी ही उपयोगी है ।
ज्योतिषसम्बन्धी चर्चाओंमें नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता, पूर्णा संज्ञाओंके नाम आये हैं । रात्रि-मुहूतं और दिन-मुहूर्तों को भी चर्चा की गयी है। वर्ष, अयन और ऋतु सम्बन्धी विचार भी महत्त्वपूर्ण हैं । निमित्तोंमें व्यंजन और छिन्न निमित्तोंकी चर्चाएं आयी हैं। . बीजगणित
गणितकी दृष्टिसे भी यह ग्रन्थ अपूर्व है। यहाँ हम गणितके कुछ उदाहरण प्रस्तुत करेंगे।
इसमें प्रधानरूपसे एकवर्णसमीकरण, अनेकवर्णसमीकरण, करणी, कल्पितराशियाँ, समानान्तर, गुणोत्तर, व्युत्क्रम, समानान्तर श्रेणियाँ, क्रम, संघय, घातांकों और लघुगणकोंका सिद्धान्त आदि बीजसम्बन्धी प्रक्रियाएं मिलती हैं । धवलामें अ को अके घनका प्रथम वर्गमूल कहा है । अ को अके घनका घन बताया है । अ को अके वर्गका धन बतलाया है । अके उत्तरोत्तरवर्ग और घनमूल निम्नप्रकार है :
अ का प्रथम वर्ग अर्थात् (अ)- अ , द्वितीय वर्ग , (*)= = * , तृतीय वर्ग , (अ)3 =ब'- 3
॥ चतुर्थ वर्ग , (A)* = अ.-अर इसी प्रकार क वर्ग
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(अ) - अनेक श्रुतपर मोर सारस्वठाचार्य : ३३१