Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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जहाँ उन्हें आचार्यपरम्परागत उपदेश प्राप्त नहीं हुआ, किन्तु गुरुका उपदेश प्राप्त रहा है वहां उन्होंने उसके आधारसे भी विषयका विवेचन किया है। ___ यदि उन्हें कहींपर उक्त दोनों ही प्रकारका उपदेश नहीं प्राप्त हुआ, तो वहां उन्होंने युक्तिबलसे सूत्रके अनुकूल विषय-व्यवस्था प्रतिपादित की है । पर इसकी घोषणा उन्होंने कर दी है। यथा
द्वीपसमुद्रोंको संख्याक विषयमें आचार्यों में मतभेद रहा है । आचार्य बोरसेनस्वामी ज्योतिषी देवोंकी संख्या लानेके लिए स्वम्भूरमण समुद्रकी 'बाह्यवेदिका' के आगे भी पृथ्वीका अस्तित्व स्वीकार करते हैं. तथा राजुके संख्यात अद्धच्छेदोंका पतन भी अनिवार्य मानते हैं । इस प्रकार उनको अर्द्धच्छेदोंके प्रमाणको परोक्षा-बिधि अभ्य आचार्यों की उपदेश-परम्पराका अनुसरण नहीं करती है । यह तो केवल 'तिलोयपणत्ती के अनुसार ज्योतिषी देवोंके भागहारको उत्पन्न करनेवाले सूत्रके आश्रयसे युक्ति द्वारा कथन किया है। इस सम्बन्धमें अन्य उदाहरण भी दृष्टव्य हैं । यथा, सासादन स्थानगत जोवोंकी संख्या निकालने में 'अन्तर्मुहत' शब्दमें अवस्थित 'अन्सर' शब्दको सामीप्य अर्थका वाचक मानकर मुहूर्तसे अधिक कालको भी अन्तर्मुहर्त स्वीकार करते हुए असंख्यात आवली प्रमाण अवहार कालका कथन किया है। इसी प्रकार आपत्तचतुरस्र लोकका कथन किया है। __ आचार्य वीरसेनस्वामीने सूत्रों द्वारा प्राप्त होनेवाले विरोधोंका भी समन्वय करनेकी चेष्टा को है। सूत्रविरोध-समन्वय ___ आचार्य वीरसेनने सूत्रों में प्राप्त होनेवाले पारस्परिक विरोधोंका समन्वय करते हुए व्याख्यान किया है । छुद्रकबन्धके अन्तर्गत अल्पबहुत्व अगुयोगद्वारके ७४ वें सूत्रमें सूक्ष्म वनस्पतिकायिकजीवोंसे वनस्पतिकायिक जीवोंका प्रमाण विशेष अधिक कहकर ७५ वे सूत्रमें निगोदजीदोंको उन वनस्पतिकायिकजीवोंसे विशेष अधिक निर्दिष्ट किया है। इसपर शंकाकारने निगोदजीवोंके वनस्पतिकायिकजीवोंसे भिन्न न होनेके कारण उक्त बनस्पतिकायिकोंके ही अन्तर्गत होनेसे इस ७५ वे सूत्रको निरर्थक बताया है। आचार्य वीरसेनने शंकाकारको शंकाका समाधान करते हुए लिखा है कि वनस्पतिकायिकजीवोंके अल्पबहत्वका कथन करनेके पश्चात् उसके आगे निगोदजीवोंको विशेष अधिक कहनेवाला १. सम्यक्रम्माणं द्विदीओ ण घेपति, किंतु एक्कस्सेत्र कम्मदिदी घेप्पदि । कृदो ? गुरुवदेपादो।
--धवला, पुस्तक ५, पृ. ४०२ । श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ३२७