Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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जोइंदुने आत्माके स्वरूप और आकारके सम्बन्धमें विभिन्न मतोंका निर्देश करते हुए जैन दृष्टिकोणके सम्बन्ध में बताया है। आत्माके सम्बन्धमें निम्नलिखित मान्यताएं प्रचलित हैं, आचायंने इन मान्यताओंका अनेकान्तवादके आलोकमें समन्वय किया है
१. आत्मा सर्वगत है। २. आत्मा जड़ है। ३. आत्मा शरीरमाण है। ४. आत्मा शन्य है।
१. कर्मबन्धनसे रहित आत्मा केवलज्ञान के द्वारा लोकालोकको जानती है, अतः ज्ञानापेक्षया सर्वगत है।
२. आरमज्ञानमें लीन जीय इन्द्रियजनित ज्ञानसे रहित हो जाते हैं, अतः ध्यान और समाधिको अपेक्षा जड़ है।
३. शरीरबन्धनसे रहित हा शुद्ध जीव अन्तिमशरीरप्रमाण हो रहता है, न वह घटता और न वह बढ़ता ही है, अतः शरीरप्रमाण है। जिस शरीरको आत्मा धारण करती है, उसी शरीरके आकारको हो जातो है, अतएव प्रदेशके संहार और प्रसरपणके कारण आत्मा शरीरप्रमाण है।
४, भोक अवस्था प्राप्त करने पर शुद्ध जीव आठों कर्मों और अठारह दोषोंसे शून्य हो जाता है, अतः उसे शून्य कहा गया है।'
द्वितीय अधिकारमें मोक्ष, मोक्षका फल एवं मोक्षके कारणका कथन किया गया है । प्रथम ग्यारह गाथाओंमें मोक्ष और उसके फलका कथन आया है। पश्चात् मोक्षके कारणोंका निरूपण किया गया है। 'जोइन्दु'ने भी कुन्दकुन्दके समान सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको मोक्षका कारण बतलाकर इन तीनोंको निश्चयदृष्टिकी अपेक्षासे आत्मस्वरूप ही बतलाया है। इसके पश्चात् समभावको प्रशंसा को गयी है।
जोइन्दुने पुण्य और पापकी समता बतलाते हुए लिखा है कि जो जीव पुण्य और पापको समान नहीं मानता, वह मोहके वशीभूत होकर चिरकाल तक भ्रमण करता है। इतना हो नहीं अपितु यह भी लिखा है कि वह पाप अच्छा है जो जीवको दुःख देकर मोक्षकी ओर लगाता है। इसी प्रकरणमें पुण्यकी निन्दा भी की गयी है । आगेके दोहेमें आर्यशान्तिका मरा दिया गया है ! इस मतमें बसाया गया है कि देव. शास्त्र और मुनियरोंकी भक्ति से पुण्य होता
१. परमात्मप्रकाश १५२-५५ ।
२५० : सोकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा