Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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केकसीको रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण नामक तीन पुत्र एवं चन्द्रनखा नामक पुत्रीका लाभ हुआ। ये चारों सन्ताने पैदा होते ही अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार अपनी-अपनी महताका संकेत देने लगीं । रत्नश्रवाने जन्मके समय ही रावणको दिव्यहारसे युक्त एवं मौलिक मालामें प्रतिबिम्बित, उसके एक ही सिरके दश प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़नेके कारण उसका नाम दशानन रखा । विद्यासिद्धि (८ बां पर्व) अपने मौसेरे भाई इन्द्रकी विभूतिका श्रवण कर उसे परास्त करनेका लक्ष्य रखकर वे तीनों भाई विद्यासिद्धि हेतू घनघोर तपश्चरण करने लगे । अन्तम अपनी दढ़ता एवं एकाग्रता और निमाहिता एव निभीकताके कारण उन तीनों भाइयोंने अनेक विद्याओंको सिद्ध कर लिया । अपनी सफलताका प्रारम्भिक चरण मान वे तीनों भाई दिग्विजयकी तैयारी करने लगे।
दक्षिण विजय (९-११ पर्व)-रथनपुरका राजा इन्द्र अत्यन्त शक्तिशाली था । अतः उसे परास्त करने के उद्देश्यसे इन्होंने आक्रमणको तैयारी की । रावणने अपनी वीरता और कुशलतासे इन्द्र के सहायक यम, वरुण आदिको तो पहल हा परास्त कर दिया था। अब उसको दष्टि इन्द्रपर हो था। इन्द्र मानव हात हुए भी अपने लिये इन्द्र ही समझ रहा था । इसी कारण उसने प्रान्तीय शासकोंको बम, वरुण, सोम आदि संज्ञाओसे अभिहित किया था। उसने कारागारको नरकसंज्ञा और अर्थमंत्रोको कुबर संज्ञा आहित की थी। रावण ने समस्त साधनपूर्ण सना लेकर किकन्धापुरके राजा बलि को अपमानित किया और उसके साधुभाई सुग्रीवको अपना मित्र बनाया ।
रथनपुर के चारों ओर मायामयी परकोटा बना हुआ था। उसकी रक्षा अनेक विद्यावाका साथ मलकवर करता था । यह परकोटा अभेद्य था । इसके भंदनवा परिज्ञान नलकूवरको पनाका ज्ञात था और यह नारी रावण के रूपको देखते ही माहित हो गया । रावणने झूठा आश्वासन देकर परकोटाभेदनका उपाय ज्ञात कर लिया और अन्त में विजयके पश्चात् नलकूवरको वहाँका राजा नियुक्त कर उसकी पत्नीको मां अन्दरो सम्बोधित कार एवं पतिव्रता बने रहनका उपदेश दे, वहाँसे आगे बढ़ा । अनेक प्रकारसे युद्ध होन के पश्चात इन्द्र अपने मंत्रिमंडल सहित बंदी बना लिया गया, पर उसके पिता सहस्रशर के अनुरोध पर रावणने उसे मुक्त किया और अपनी महत्ताका उदाहरण प्रस्तुत किया । हनुमान-जन्म (१५-१८ पर्व)
आदित्यपुर के राजा प्रहलादके पुत्र पवनञ्जयका विवाह राजा महेन्द्रकी पुत्री २८० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा