Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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बुद्धियों का व्यवसायकल विकले अलि आदि लक्षणोंका खण्डन, ज्ञान के परोक्षवादका निराकरण, ज्ञानके स्वसंवेदनकी सिद्धि, ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानका निरास, अचेतनज्ञाननिरास, साकारज्ञाननिरास, निराकारज्ञानसिद्धि, सवेदनाद्वैतनिरास, विभ्रमवादनिरास, बहिरर्थसिद्धि चित्रज्ञानखण्डन, परमाणुरूप बहिरर्थका निराकरण, अवयवोंसे भिन्न अवयवीका खण्डन, अर्थके उत्पाद-व्ययद्रव्यका लक्षण, गुण- पर्यायका स्वरूप, सामान्यका स्वरूप, श्रौव्यका समर्थन, अपोहरूप सामान्यका निरास, व्यक्तिसे भिन्न सामान्यका खण्डन, धर्मकीतिसम्मत प्रत्यक्षलक्षणका खण्डन, बौद्धकल्पित स्वसंवेदन, योगि, मानस प्रत्यक्ष निरास, सांख्यकल्पित प्रत्यक्षलक्षणका खण्डन, नैयायिक के प्रत्यक्षका समालोचन, अतीन्द्रिय प्रत्यक्षका लक्षण आदि विषयोंका विवेचन किया गया है ।
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द्वितीय अनुमानप्रस्ताव अनुमानसे सम्बद्ध है । इसमें अनुमानका लक्षण, प्रत्यक्षकी तरह अनुमानको बहिरर्थविषयता, साध्य - साध्याभासके लक्षण, बौद्धादिमतों में साध्य प्रयोगकी असम्भवता शब्दका अर्थवाचकत्व, शब्दसङ्कतग्रहणप्रकार, भूतचैतन्यवादका निराकरण, गुण-गुणीभेदका निराकरण, साधन-साधनाभासके लक्षण, प्रमेयत्वहेतुकी अनेकान्तसाधकता, सत्व हेतु की परिणामिता प्रसाधकता, वैरूप्यखण्डनपूर्वक अन्यथानुपपत्तिसमर्थन, तर्ककी प्रमाणता, अनुपलम्भहेतुका समर्थन पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुका समर्थन, असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर हेत्वाभासों का विवेचन, दूषणा भासलक्षण, जातिलक्षण, जयेतरव्यवस्था, दृष्टान्त, दृष्टान्ताभासविचार, वादका लक्षण, निग्रहस्थानलक्षण, वादाभासलक्षण आदि अनुमानसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंका वर्णन आया है ।
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तृतीय प्रवचनप्रस्तावमें आगमसम्बन्धी विचार किया गया है। इसमें प्रवचनका स्वरूप, सुगत्तके आप्तत्वका निरास, सुगतके करुणावत्व तथा चतुसत्यप्रतिपादकत्वका समालोचन, आगमके अपौरुषेयत्वका खण्डन, सर्वज्ञत्व समर्थन, ज्योतिर्ज्ञानोपदेश, सत्यस्वप्नज्ञान तथा ईक्षणिकादि विद्याके दृष्टान्त द्वारा सर्वज्ञत्वसिद्धि, शब्दनित्यत्वनिरास, जीवादितत्त्वनिरूपण, नैरात्म्य भावनाको निरर्थकता, मोक्षका स्वरूप, सप्तभंगीनिरूपण, स्याद्वादमें दिये जाने वाले संशयादि दोषोंका परिहार, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदिका प्रामाण्य, प्रमाणका फल आदि विषयोंका विवेचन आया है ।
यह ग्रन्थ कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है | कारिकाओंके साथ उत्थानिका वाक्य भी गद्य में निबद्ध हैं। त्रिवृत्ति टीकात्मक न होकर विशेष विषयके सुचन
३१० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा