Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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स्वसंवेदन प्रत्यक्षके निर्विकल्पकत्वका खण्डन, अविसंवादकी बहुलता से प्रमाणव्यवस्था आदि विषयोंका विचार किया गया है ।
द्वितीय सविकल्प सिद्धि प्रस्ताव में अवग्रहादि ज्ञानोंका वर्णन, मानस-प्रत्यक्षकी आलोचना, निर्विकल्प से सविकल्पकी उत्पत्ति एवं अवग्रहादिमें पूर्व-पूर्व की प्रमाणता और उत्तर-उत्तर में फलरूपता की सिद्धि की गयी है ।
तृतीय प्रमाणान्तर - सिद्धिमं स्मरणको प्रमाणता, प्रत्यभिज्ञानका प्रामाण्य, उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भाव, तर्कको प्रमाणताका समर्थन, क्षणिकपक्ष में अर्थक्रियाका अभाव आदिकी समीक्षा आयी है ।
चतुथं जीवसिद्धि प्रस्ताव में ज्ञानको ज्ञानावरण के उदयसे मिथ्याज्ञान, क्षणिकचित्त में कार्यकारणभाव, सन्तान आदिको अनुत्पांत, जीव और कर्म चेतन और अचेतन होकर भी बन्धके प्रति एक है, कर्मास्रव तत्तोपप्लववाद, भूत चैतन्यवाद एवं विभिन्न दर्शनों में मान्य आत्मस्वरूपका विवेचन किया है।
पञ्चम प्रस्ताव जल्प- सिद्धि है । इसमें जल्पका लक्षण, उसकी चतुरङ्गता, जल्पका फलमार्ग प्रभावना, शव्दकी अर्थवाचकता, निग्रहस्थान एवं जयपराजयव्यवस्था की समोक्षा को गयी है ।
छठा हेतुलक्षण सिद्धि प्रस्ताव है। इसमें हेतुका अन्यथानुपपत्तिलक्षण, तादात्म्य तदुत्पत्तिसे ही अविनाभावकी व्याप्ति नहीं, हेतुके भेद, कारण आदिका कथन आया है ।
सप्तम प्रस्ताव शास्त्र सिद्धि है । इसमें श्रुतका श्रेयोमार्गसाधकत्व शब्दका अर्थवाचकत्व, स्वप्नादि दशा में भी जीवको चेतनता, भेदेकान्त में कारक ज्ञापक स्थितिका अभाव, ईश्वरवाद, पुरुषाद्वैतवाद, वेदका अपौरुषेयवाद आदिका समालोचन किया है ।
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अष्टम सर्वज्ञसिद्धि प्रस्ताव में सर्वज्ञकी सिद्धि और नवम शब्दसिद्धि प्रस्तावमें शब्दका पौद्गलिकत्व सिद्ध किया है। दशम प्रस्तावका नाम अर्थनयसिद्धि है । इसमें नयका स्वरूप, नेगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजु-सूत्र इन चार अर्थनयों और नयाभासों का वर्णन आया है ।
ग्यारहवाँ शब्दनयसिद्धि प्रस्ताव है। इसमें शब्दका स्वरूप, स्फोटवादका खण्डन, शब्दनित्यत्वका निरास शब्दनय, समभिरूढनय एवं एवम्भूतनध यादिका वर्णन आया है ।
बारहवाँ निक्षेपसिद्धि प्रस्ताव है । इसमें निक्षेपका लक्षण, भेद, उपभेदोंका स्वरूप एवं उनकी सम्भावनाओं पर विचार किया गया है ।
तबर और सारस्वताचार्य : ३१३
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