Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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होनेसे खत्त्वार्थक सम्पूर्ण टोका ग्रन्थोंकी गरज अकेला ही पूर्ण करता है । ये दो वातिक यदि नहीं होते, तो दशवीं शताब्दी तकके दिगम्बर साहित्यमें जो विशिष्टता आयो, और उसकी जो प्रतिष्ठा बंधी वह निश्चयसे अधूरी हो रहती। ये दो वात्तिक साम्प्रदायिक होनेपर भी अनेक दृष्टियोंसे भारतीय दार्शनिक साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त करें, ऐरा, योग्यता से हैं। इस अवलोक बौद्ध ओर वैदिक परम्पराके अनेक विषयों पर तथा अनेक ग्रन्थों पर ऐतिहासिक प्रकाश डालता है।" _ 'तत्त्वार्थवात्तिक'का मूल आधार पूज्यपादकी सवार्थसिद्धि है । सवार्थसिद्धिकी वाक्यरचना, सूत्र जैसी संतुलित और परिमित है । यही कारण है कि अकलंकदेवने उसके सभी विशेष वाक्योंको अपने वार्तिक बना डाले हैं, और उनका व्याख्यान किया है। आवश्यकतानुसार नये वात्तिकोंको भी रचना की है, पर सर्वार्थसिद्धिका उपयोग पूरी तरह से किया है । जिस प्रकार बोज वृक्षमें समाविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार समस्त सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवात्तिकमें समाविष्ट है, पर विशेषता यह है कि सर्वासिद्धि के विशिष्ट अम्यासीको भी यह प्रतीति नहीं हो पाती कि वह प्रकारान्तरसे सर्वार्थसिद्धिका अध्ययन कर रहा है ।
तत्त्वार्थवात्तिक में यों तो अनेक विषयोंकी चर्चा की गयी है, पर विशेषरूपसे जिन विषयोंपर प्रकाश डाला गया है, वे निम्नलिखित हैं
१. कर्ता और करण के भेदाभेदको चर्चा । तोनों वाच्यों द्वारा ज्ञानकी व्युत्पत्ति २. आत्माका ज्ञानसे भिन्नाभिन्नत्व ।
३. केवल ज्ञानप्राप्तिके द्वारा मोक्षको मान्यताका निरसन कर मोक्षमागेका निरूपण । सन्दर्भानुसार सांख्य, वैशेषिक, न्याय और बौद्ध दर्शनोंको समीक्षा
४. मुख्य और अमुख्योंका विवेचन करते हुए अनेकान्तदृष्टिका समर्थन । ५. सप्तभंगीके निरूपणके पश्चात् अनेकान्तमें अनेकान्सको सुघटना ।
६. अनेकान्तमें प्रतिपादत छल, संशय आदि दोषोंका निराकरण करते हए अनेकान्तात्मकताको सिद्धि ।
७. एकान्तवादमें ज्ञानके करण-कर्तृत्वका अभाव | ८. आत्म-अनात्मवादियोंको समीक्षा । १. प्रत्यक्ष-परोक्षसम्बन्धो ज्ञानकी व्याख्याओंका विस्तृत विवेचन ।
इस सन्दर्भ में पूर्वपक्षके रूपमें बौद्ध, न्याय, वैशेषिक, मोमांसक आदि दार्शनिकोंकी समीक्षा। १. तत्त्वार्थसूत्र, भारत जैन महामंडल वर्मा, द्वितीय संस्करण, सन् १९५२,पृ० ७८, ७९ ।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ३१५