Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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अभावज्ञान, नैयायिकाभिमत उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव, प्रत्यभिज्ञानके देसादृश्य, आपेक्षिक प्रतियोगी आदि मेदोंका निरूपण, बौद्धमतमें स्वभावादि हेतुओंके प्रयोगमें कठिनता, अनुमान-अनुमेयव्यवहारकी वास्तविकता एवं विकल्पबुद्धिकी प्रमाणता आदि परोक्षज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंका निरूपण किया है। चतुर्थ परिसर, ज्ञान का
किया अपमानाका निषेध कर प्रमाणाभासका स्वरूप, सविकल्प ज्ञानमें प्रत्यक्षभासताका अभाव, अविसंवाद और विसंवादसे प्रमाण-प्रमाणभासव्यवस्था, विप्रकृष्ट विषयों में श्रुतकी प्रमाणता, हेतूवाद और आप्तोक्त रूपसे द्विविध श्रुतकी अविसंवादि होनेसे प्रमाणता, शब्दोंके विवक्षावाचित्वका खण्डनकर उनकी अर्थवाचकता आदि श्रुतसम्बन्धी विषयोंका विवेचन किया गया है। प्रमाणके स्वरूप, संख्या, विषय और फलका निरूपण मी प्रमाणप्रवेशमें किया है।
पञ्चम परिच्छेदमें नय-दुर्नयके लक्षण, द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक रूपसे नयके मूल भेद, सद्रूपसे समस्त वस्तुओंके ग्रहणका संग्रहनयत्व, ब्रह्मवादका संग्रहाभासत्व, बौद्धाभिमत क्षणिक एकान्तका निरास, गण-गुणी, धर्म-धर्मीकी गौण-मुख्य विषक्षामें नेगमत्रयकी प्रवृत्ति, वैशेषिकसम्मत गुण-गुण्यादिके एकान्त भेदका नेगमाभासत्व, प्रमाणिक भेदका व्यवहारनयत्व, काल्पनिक भेदका व्यवहाराभासत्व, कालकारकादिके मेदसे अर्थभेदनिरूपणको शब्दनयता, पर्यायभेदसे अर्थभेदक कचनका समभिरू नयत्व, क्रियाभेदसे अर्थभेदप्ररूपणका एवं. भूतनयत्व, सामग्री-भेदसे अभिन्न वस्तुमें भी षटकारकीका सम्भवत्व प्रतिपादित किया गया है। यहाँ लधीयस्त्रयका द्वितीय प्रकरण नयप्रवेश समाप्त होता है। शब्दज्ञानको प्रत्यक्षताका निरसनकर अनुमानवत् उसको परोक्षता सिद्ध करते हुए अकलङ्कदेवने लिखा है
'अक्षशब्दार्थविज्ञानमविसंवादतः समम् ।
अस्पष्ट शब्दविज्ञानं प्रमाणमनुमानबत् ॥ तदुत्पत्तिसारूप्यादिलक्षणव्यभिचारेऽपि आत्मना यदर्थपरिच्छेदलक्षणं ज्ञानं तत्तस्येति सम्बन्धात् । वागर्थज्ञानस्यापि स्वयमविसंवादात् प्रमाणत्वं समक्षवत् । विवक्षाव्यतिरेकेण वागर्थज्ञानं वस्तुतत्त्वं प्रत्याययति अनुमानवत्, सम्बन्धनियमाभावात् । वाच्यवाचकलक्षणस्यापि सम्बन्धस्य बहिरर्थप्रतिपत्तिहेतुतोपलब्धेः ' ।।
१. लधीयस्त्रय, सवृत्ति, कारिका ४६ । ३०८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा