Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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अकलंकदेवने इसपर संक्षिप्त विवृति भी लिखी है। पर यह विवृति कारिकाओंका व्याख्यानरूप न होकर सूचित विषयोंकी पूरक है। यह मूल श्लोकोंके साथ ही साथ लिखी गयी है। पं० महेन्द्रकुमारजीने लिखा है-"मालूम होता है कि अकलदेव जिस पदार्थको कहना चाहते हैं, वे उसके अमुक अंशकी कारिका अनाकर बाकीको गद्यभागमें लिखते हैं। अत: विषयकी दृष्टिसे गद्य और पद्य दोनों मिलकर ही ग्रन्थकी अखण्डता स्थिर रखते हैं। धर्मकीर्तिकी प्रमाणवार्तिकको वृत्ति भी कुछ इसी प्रकारको है। उसमें भी कारिकोक्त पदार्थको पूर्ति तथा स्पष्टताके लिए बहुत कुछ लिखा गया है ।
लघीयस्त्रयके प्रथम परिच्छेदमें सम्यक्ज्ञानकी प्रमाणता, प्रत्यक्ष परोक्षका लक्षण, प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और मुख्य रूपसे दो भेद, सांव्यवहारिकके इन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्षरूपसे दो भेद, मुख्य प्रत्यक्षका समर्थन, सांव्यवहारिकके अवग्रहादिरूप भेद तथा उनके लक्षण, अवग्रहादिके बह्वादिरूप मेद, भावइन्द्रिय, द्रव्य इन्द्रियके लक्षण, पूर्व-पूर्व जानकी प्रमाणता और उत्तरोत्तर ज्ञानोंकी फळरूपता आदि विषयोंका कथन आया है।
द्वितीय परिच्छेदमेंद्रव्य पर्यायात्मक वस्तुका प्रमाणविषयत्व तथा अर्थक्रियाकारित्वके विवेचनके पश्चात् नित्यैकान्त और क्षणिकैकान्तमें क्रम-योगपद्यसे अर्थक्रियाकारित्वका अमाव प्रतिपादित किया है। वस्तुको नित्य माननेपर आनेवाले दोषोंको समीक्षा की है। वस्तु न सर्वथा नित्य है और न अनित्य । वह किसी नविशेषकी अपेक्षासे नित्य है और इतर नयकी अपेक्षासे अनित्य । लिखा है कि मेदाभेदात्मक वस्तु द्रव्याथिक और पर्यायिक नयकी अपेक्षासे हो घटित होती है। द्रव्याथिक अभेदका आश्रय करता है और पर्याथिक भेदका । यथा
अर्थक्रिया न युज्यते नित्य-क्षणिकपक्षयोः ।
क्रमाऽक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता ॥ तृतीय परिच्छेदमें मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता तथा अभिनिबोधका शब्दयोजनासे पूर्व अवस्थामें मतिव्यपदेश तथा उत्तर अवस्थामें श्रुतव्यपदेश, व्याप्तिका ग्रहण प्रत्यक्ष और अनुमानके द्वारा सम्भव न होनेसे व्याप्तिग्राही तर्कका प्रामाण्य, अनुमानका लक्षण, जलचन्द्रके दृष्टान्तसे कारणहेतुका समर्थन, कृत्तिकोदय आदि पूर्वचर हेतुका समर्थन, अदृश्यानुपलब्धिसे परचैतन्य आदिका
१. अकलकपन्यत्रय, प्रस्तावना, पुष्ठ ३५-३६ । २. लत्रीयस्त्रय, कारिका ८।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३०७