Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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वर्द्धमान जिनेन्द्र के द्वारा कहा हुआ यह अर्थ इन्द्रभूति नामक गौतम गणधरको प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् धारिणीके पुत्र सुधर्माचार्यको । तदनन्तर प्रभवको और पश्चात् श्रेष्ठ वक्ता कीर्तिवर आचार्यको उक्त अर्थ प्राप्त हुआ | आचार्य रविषेणने इन्हीं कीर्तिधर आचार्यके वचनोंका अवलोकन कर, इस 'पद्मचरितम्' की रचना की है।
यहाँ यह विचारणीय है कि पद्यमें आया हुआ कीर्तिघर आचार्य कौन है और उसके द्वारा रामकथा सम्बन्धी कौन-सा काव्य लिखा गया है ? जैन साहित्यके आलोक में उक्त प्रश्नों का उत्तर प्राप्त नहीं होता है। श्रीनाथूरामजी प्रेमीने इस ग्रन्थको रचना प्राकृत 'पउमचरिय के आधार पर मानी है। अतः संक्षेपमें यहो कहा जा सकता है कि यह एक सफल काव्य है, जिसकी रचना कवि आचार्य रविषेणके द्वारा की गयी है ।
भूगोलकी दृष्टि से भी यह ग्रन्थ अत्यधिक उपयोगी है। इसमें सृष्टिको अनादिनिधन बताया गया है और उत्सर्पण एवं अवसर्पण कालमें होने वाली वृद्धि हानिका कथन आया है । युगमानका वर्णन प्रायः 'तिलोयपण्णत्ति' के समान है । भोगभूमि और कर्मभूमिकी व्यवस्था भी उसी के समान वर्णित है। बताया है कि भोगभूमिके पर्वत अत्यन्त ऊँचे, पाँच प्रकारके वर्णोंसे उज्जवल, नाना प्रकारकी रत्नोंकी कान्तिसे व्याप्त एवं सर्वप्राणियोंको सुखोत्पादक होते हैं । नदियोंमें मगरमच्छ आदि नहीं रहते, पर कर्मभूमिमें यह व्यवस्था परिवर्तित हो जाती है ।
जटासिंहनन्दि
पुराण - काव्यनिर्माताके रूपमें जटाचार्यका नाम विशेषरूपसे प्रसिद्ध है । जिनसेन, उद्योतनसूरि आदि प्राचीन आचार्योंने जटासिंनन्दिकी प्रशंसा की हैं । जिनसेन प्रथमने लिखा है
वराङ्गनेव सर्वाङ्गर्वराङ्गचरितार्थवाक् ।
कस्य नोपादयेद् गाढमनुरागं स्वगोचरम् ।। '
जिस प्रकार उत्तम स्त्री अपने हस्त, मुख, पाद आदि अंगोंके द्वारा अपने विषय में गाढ़ अनुराग उत्पन्न करती है, उसी प्रकार बराङ्गचरितको अर्थपूर्ण वाणी भी अपने समस्त छन्द, अलंकार, रोति आदि अंगों अपने विषयमें किसी भी रसिक समालोचक के हृदय में गाढ़ राग उत्पन्न करतो है ।
जिनसेन द्वितीयने भी अपने आदिपुराणमें जटाचार्यका आदरपूर्वक स्मरण किया है । लिखा है
१. हरिवंशपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण १।३५ ।
Aaer और सारस्वताचार्य : २९१