Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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काव्यलिंग, निदर्शना, यथासंख्या, विशेषोक्ति, स्वभावोक्ति, प्रतीप, उदात्त, संसृष्टि आदि ३२ प्रकारके अलंकार प्रयुक्त हुए हैं । विशेषोक्ति, यथासंख्य ओर कायलिंगके उदाहरण दिये जा रहे हैंविशेषोक्ति--
शौर्य रक्षितलो कोऽपि नयानुगतमानसः ।
लक्ष्म्यापि कृतसम्बन्धो न गर्वग्रहदूषितः ।। राजा श्रेणिक अपनी शर-वीरतासे समस्त लोकोंकी रक्षा करता था, तो भी उसका मन सदा नीतिपूर्ण था । लक्ष्मोसे उसका सम्बन्ध था, फिर भी वह अहंकारग्रहसे दूषित नहीं होता था ।
यहाँ पर कारण दर्शाते हुए भी कार्यामुख बताया गया है, अतः विशेषोक्ति अलंकार है। यथासंस्थ
स्फूरद्यशःप्रतापाभ्यामाक्रान्तभुवनावय ।
अभिरामदुरालोको शीततिग्मकराविव ॥ बढ़ते हुये यश और प्रतापसे लोकको व्याप्त करनेवाले लव और कुश चन्द्र एवं सूर्यके समान सुन्दर तथा दुरालोक हो गये । यहाँ पर चन्द्र और सूर्यका अन्वय सुन्दर और दुरालोकके साथ क्रमशः ही किया गया है। स्वभावोक्ति
बीक्षमाणः सितान् दन्तान् दाडिमीपुष्पलोहिते। ___ अवटीटे मखे तेषां भास्वत्काञ्चनतारके । इस पद्यमें वानरजातिके स्वाभाविक गुणोंका वर्णन होनेसे स्वभावोक्ति अलंकार है। इसी प्रकार नर्मदावर्णन, सुमेरुवर्णन, वनवर्णन आदिमें भी मानवीकरण किया गया है। आचार्यने अपने काव्यके आधारका स्वयं निरूपण करते हुये लिखा है
वर्द्धमानजिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थो गणेश्वरम् । इन्द्रभूति परिणाप्तः सुधर्म धारणीभवम् ।। प्रभवं क्रमतः कीर्ति ततोऽनु(नोत्तरवाग्मिनम् ।
लिखितं तस्य संप्राप्य रवेर्यत्नोऽयमुद्गतः ।। १. पद्मचरित २०५३ २. वही १००।५३ । ३. पमचरित, ६११४ । ४. वही ११४१-४२ ।
२९० : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा