Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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विरोधियोंका उन्मूलन, समृद्धि और अभ्युदयके साधनोंके सद्भावके कारण, आत्मकल्याणके साघनोंका विरलत्व, जिनालय निर्माण और जिनबिम्बप्रतिष्ठा सम्पन्न होने पर भी निर्वाणरूप फलकी प्राप्तिको असन्निकटता फल प्राप्ति में बाधक है । अतएव इस स्थितिको विमर्शसन्धिकी स्थिति कहा जा सकता है । वाराङ्गका विरक्त होकर तपश्चरण करना और सद्गतिलाभ निर्वहणसन्धि है | अतः सामान्यतः कथावस्तुमं स्यटन सन्निहित है, पर चतुर्थ सर्गसे दशम सगं पर्यन्त तथा २६वें और २७वें सर्गको कथावस्तुका मुख्य कथासे कोई सम्बन्ध नहीं है। इन सगक हटा देने पर भी, कथावस्तुमें कोई कमी नहीं आती है । ये सगँ केवल जैन सिद्धान्त के विभिन्न तत्वोंका प्रतिपादन करने के लिये ही लिखे गये हैं ।
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यक्षिणीका आगमन और कुमारका अजगरसे रक्षा करना, हाथीकी सहायतासे व्याघ्र से बचना आदि अलौलिक तत्त्व हैं । इसी प्रकार घोड़े द्वारा कुमारका अपहरण, मन्त्र द्वारा भिल्लराजके पुत्रका निर्विषीकरण प्रभृति आदि अप्राकृतिक तत्त्व भी समाविष्ट हैं । प्रकृतिचित्रण और वस्तुव्यापारवर्णनमें कवि प्रत्येक वस्तुको सूक्ष्म से सूक्ष्म विगत देता हुआ दृश्योंका तांता बाँधता चलता है । युद्ध, अटवी आदिके वर्णन तो बाल्मीकि और व्यासके समान सांगोपांग हैं। चरित्र चित्रण में कवि आवृत्ति, अनुप्रास आदिका प्रयोग करता तथा सदुपदेश प्रस्तुत करता हुआ आगे बढ़ता है । वस्तुचित्रणका निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य है
जलप्रभाभिः कृतभूमिभागां प्राचीनदेशोपहितप्रबालाम् । सर्वाजं नोपात्तकपोलपालीं वैडूर्यसव्यानवतीं परार्थ्याम् ॥ हेमोत्तमस्तम्भवृतां विशालां महेद्रनीलप्रतिबद्धकुम्भाम् । तां पद्मरागोपगृहीतकण्ठां विशुद्धरूपोन्नतचारुकूटाम् ॥ द्विजातिवक्त्रोद्गलितप्रलब्धां मुक्ताकलापच्छुरितान्त रालाम् । मन्दानिला कम्पिचलत्पताकामात्मप्रभा पितसूर्यभासम् ॥ नानाप्रका रोज्जवल रत्नदण्डां विलासिनीधारितचामरा ह्वाम् । आरुह्य कन्यां शिविकां पृथुश्रीः पुरीं विवेशोत्तमनामधेयाम् ' ॥ पालकीका घरातल पानी के समान रंगों का बनाया गया था, फलतः वह जलकुण्डको भ्रान्ति उत्पन्न करता था । उसको बन्दनवारमें लगे हुए मूंगे दूर देशसे लाये गये थे । उसके कबूतरों युक्त छज्जे बनाने में तो सारे संसारका धन ही खर्च हो गया था। उसकी छत वैदूर्य मणियोंसे निर्मित थी । स्वर्णं १. वराङ्गचरित २।५३-५६ ।
२९८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा