Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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सहिष्णुता, विवेक, साहस, लौकिक और आध्यात्मिक शत्रुओं पर विजयप्राप्ति आदि धीरोदात्त नायक के गुण पाये जाते हैं ।
कथावस्तु
विनीत देशकी रम्या नदीके तटपर स्थिति उत्तमपुर में भोजनंगी महाराज धर्मसेन राज्य करते थे | इनकी पट्टरानोका नाम गुणवती था, इस महादेवी के गर्भमे कुमार वराङ्गका जन्म हुआ था। वयस्क होनेपर वराङ्गकुमारका विवाह देश कुलीन कन्याओं के साथ कर दिया गया । वरदत्त नामक केवली से धर्मोपदेश सुनकर वराङ्गने अणुव्रत ग्रहण किये। जब वराङ्गको युवराज पद दिया गया, तो उसकी सौतेली माता तथा भाई सुषेणको ईर्ष्या हुई। इन्होंने सुबुद्धि मन्त्रीसे मिलकर षड्यन्त्र किया, फलतः मन्त्री द्वारा सुशिक्षित एक दुष्ट घोड़ा वराङ्गको लेकर जंगलकी ओर भागा और वराङ्ग सहित एक कुएँ में गिर गया । वराङ्ग किसी प्रकार कुएँसे निकलकर चला तो दुर्गम वनमें एक व्याघ्नने उसका पीछा किया | जंगली हाथीकी सहायता से उसकी रक्षा होती है । अनन्तर एक यक्षिणी उसे एक अजगर से बचाती है । अरण्य में भटकते हुये वराङ्ग बलिके हेतु भील द्वारा पकड़ लिया जाता है; किन्तु सांपसे दंशित भिल्लराजके पुत्रका विष उतार देनेके कारण उसे मुक्ति मिल जाती है । कुमार वराङ्ग सेठ सागरबुद्धिके बंजारे से मिलता है और उसकी जंगली डाकुओंसे रक्षा करता है। फलतः कश्चिद्भटके नामसे अज्ञातवास करने लगता है । हाथी के लोभसे मथुराधिपतिले ललितपुर पर आक्रमण किया, तो कश्चिद् भटने उसका सामना कर अपनी वीरताका परिचय दिया । अतएव ललितपुराधिपने आधा राज्य देकर वराङ्गका विवाह अपनी कन्यासे कर दिया।
वरांगके लुप्त होनेपर सुषेणको यौवराज पद प्राप्त होता है, पर योग्यताके अभाव में उसे शासनप्रबन्धमें सफलता प्राप्त नहीं होती । धर्मसेनको वृद्ध एवं उत्तराधिकारी शासक सुषेणको कायर समझकर वकुलाधिप उत्तमपुर पर आक्रमण करता है | अतः धर्मसेन ललितपुराधिपसे सैनिक सहायता मांगता है । इस अवसर पर वराङ्गकुमार उपस्थित हो वकुलाधिपको परास्त कर देता है। जनता उसका स्वागत करतो है और वह विरोधियोंको क्षमाकर पिताकी अनुमतिसे दिग्विजय के लिए प्रस्थान करता है। एक नये समृद्ध राज्यकी वह स्थापना करता है, जिसकी राजधानी सरस्वती नदीके तटपर स्थित आनतंपुरको बनाता है। कुमार वराङ्ग यहाँ पर एक विशाल जिन मन्दिरका निर्माण कराता १. साहित्यदर्पण ३३२ ।
२९६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्पर