Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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वस्तुव्यापारोंके साथ अंग-अंगीभावसे संयोजन किया गया है । अतएव रूपाकृतितत्त्वका पूर्ण समावेश हुआ है ।
रविषेणने कथा-वस्तुके साथ वानरवंश, राक्षसबंश आदिको व्याख्याएं भी बुद्धिसंगत की हैं। निःसन्देह कविका यह ग्रन्थ प्राकृत 'पउमचरिय' पर आधत होनेपर भी कई मौलिकताओंकी दष्टिसे अद्वितीय है।
वानरवंशकी उत्पसिके सम्बन्ध में वाल्मीकिने लिखा है कि ब्रह्माका निर्देश पाकर अनेवा देवताओंने अप्सराओं, यक्ष, ऋक्ष, नागकन्याओं, किन्नरियों, विद्याधरियों एवं वारिबाक संयोगस सहस्रों पुत्र उत्पन्न किये। माता-पिताके प्राकृतिक गुणोंसे युक्त होने के कारण ये स्वभावतः साहसी, पराक्रमी, धर्मात्मा, म्यायनीतिप्रिय एवं तेजस्वी हुए। ब्रह्मासे जामवान, इन्द्रसे बलि, सूयंसे सुग्रीव, विश्वकर्माम नल, अग्निस नील, वृविर से गन्धमादन, बृहस्पतिसे तार, अश्वनीकुमार से मयन्द और द्विविन्द, वरुणसे सुषेण एवं वायुसे हनुमानको उत्पत्ति
रविषेणके मतानुसार देवताओंसे वानरोंको उत्पत्ति नहीं हुई है, ' न वानर और देवताओंका शारीरिक संयोग सम्बन्ध ही सिद्ध होता है। अनः ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, विश्वकर्मा, मल, अग्नि, कुबेर, वरुण, पवन आदि तत्तद् नामधारी मानवव्यक्तिविशेष हैं। इन व्यक्तिविशेषोंसे हो वानरजातिके व्यक्ति पैदा हुए हैं।
रविषेणके मत्तम वानर एक मानवजातिविशेष हैं। जिन विद्याधर राजाओंने अपना ध्वज-चित वानर अपना लिया था, वे विद्याधर राजा बानरवशी कहलाने लगे। धानर पशु नहीं हैं, मनुष्य हैं जो विद्याधरों या भूमिगाचरियोंके रूप में वणित हैं। इस प्रकार रविषणने बाल्मोकिद्वारा कल्पित पशुजातिका गानवीकरण किया है।
इसी प्रकार राक्षसवंशके सम्बन्धमें भी रविषणको मान्यता वाल्मीकिसे भिन्न है। रविषेणने जिस प्रकार वानरद्वीपनिवासियोंको बानरवंशी माना है, उसी प्रकार राक्षसद्वीपवासियोंको राक्षसवंशी कहा है। बताया है कि विजयाईके पश्चिममें एक द्वीप है, जहाँ विद्याधर राजाओंका निवास है। उस द्वीपका नाम राक्षस द्वीप है । अत: वहाँके निवासो राक्षस कहलाने लगे हैं। अमराख्य और भानुराख्य नामक तेजस्वी राजाओंकी परम्परामें मेघवाहन नामक पुत्रने जन्म लिया । इसके राक्षसनामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो अत्यन्त १. पप्रचरितम् ६।१३३, ६७०-७१, ६१७२-७५ । २. वही ६।२१४, ६।१८२-१८६ । ३. वही ५५३८५ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २८७