Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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ऐसी सशक्त अभिव्यक्ति अन्यत्र नहीं मिल सकती है 1 इनके परमात्मप्रकाशमें दो अधिकार हैं। प्रथम अधिकारमें १२६ दोहे और द्वितीयमे २१९ हैं। इन दोहोंमें क्षेपक और स्थलसंख्याबाह्यप्रक्षेपक भी सम्मिलित हैं। ब्रह्मदेवके मतानुसार परमात्मप्रकाशमें समस्त ३४५ पद्य हैं। इनमें पांच गाथाएँ, एक स्रग्धरा और एक मालिनी हैं किन्तु इन पद्योंकी भाषा अपभ्रंश नहीं है | एक चतुष्पदिका भी है और शेष ३७७ दोहे हैं, जो अपभ्रशमें निबद्ध हैं।
विषय-वर्णनको दृष्टिसे प्रारम्भके सात पद्योंमें पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया गया है। आठवें, नवें और दसर्वे दोहेम भट्टप्रभाकर जोइंदुसे निवेदन करता है
गउ संसारि वसंताह सामिय कालु अणंतु | पर मई किं पि ण पत्तु सुह दुक्खु जि पत्तु महंतु ॥ चउ-गइ-दुक्खहं तत्ताहँ जो परमप्पउ कोइ।
चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएं सो वि॥' हे स्वामिन् ! इस संसारमें रहते हुए अनन्तकाल बीत गया, परन्तु मैंने कुछ भी सुख प्राप्त नहीं किया, प्रत्युत् महान् दुःख ही पाता रहा । अत: चारों गतियोंके दुखोंसे सन्तप्त प्राणियोंके चारों गति-सम्बन्धी दुखोंका विनाश करनेवाले परमात्माका स्वरूप बतलाइए । उत्तरमें जोइंदूने आत्माके तीन भेदोंका कथन किया है—(१) मूढ (२) विचक्षण और (३) ब्रह्म ।
जो शरीरको ही आत्मा मानता है, वह मद है। जो शरीरसे भिन्न ज्ञानमय परमात्माको जानता है, वह विचक्षण या पण्डित है। जिसने कर्मों का नाश कर शरीर आदि परद्रव्योंको छोड़ ज्ञानमय आत्माको प्राप्त कर लिया है वह परमात्मा है।
जोइंदुके मतसे आत्मा हो परमात्मा हो जाती है। निश्चयनयसे आत्मा और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं है । जैसा निर्मल ज्ञानमय देव मुक्ति में निवास करता है, वैसा ही परमब्रह्म शरीरमें निवास करता है । अतः दोनोंमें भेद नहीं किया जा सकता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जोइंदुने आत्माको ब्रह्मशब्द द्वारा अभिहित किया है, जिससे उनपर अद्वेतका प्रभाव मालूम पड़ता है। १. परमात्मप्रकाश, १।९-१० । २. वही, १०१३-१५ । ३. वही, १।२६।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २४९