Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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३. मानतुगने भक्तामरस्तोत्रको रचना की। दोनों सम्प्रदायोंने अपनीअपनी मान्यताके अनुसार इस स्तोत्रको प्रतिष्ठा दी। प्रारम्भमें इस स्तोत्रमें ४८ स्तोत्र थे, जो काव्य कहलाते थे । प्रायः हस्तलिखित ग्रन्थों में ४८ काव्य ही मिलते हैं। प्रत्येक पद्यमें काव्यत्व रहनेके कारण ही ४८ पद्योंको ४८ काव्य कहा गया है। इन पद्योंमें श्वेताम्वर सम्प्रदायने अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्य ध्वनि और चमर इन चार प्रातिहारियोंके बोधक पद्योंको ग्रहण किया और सिंहासन, भापण्डल, दुन्दुभिः एवं छत्र इन चार प्रातिहारियोंके विवेचक पद्योंको निकाल दिया। इधर दिगम्बर सम्प्रदायकी कुछ हस्तलिखित पाण्डुलिपियोंमें श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा निकाले हुए चार प्रातिहारियोंके बोधक चार नये पद्य और जोड़ दिये गये । इस प्रकार ५२ पद्योंको संख्या गढ़ लो गयी । वस्तुतः इस स्तोत्रकाव्यमें ४८ हो पद्य है।
४. स्तोत्र-काव्योंका महत्व दिखलानेके लिए उनके साथ चमत्कारपूर्ण आख्यानोंकी योजना की गयी है । मयूर. पुष्पदन्त, बाण प्रभृति सभी कवियोंके स्तोत्रोंके पीछे कोई-न-कोई चमत्कारपूर्ण आख्यान विद्यमान हैं। भगवदर्भाक्त, चाहे वह वीतरागीको हो या सरागीकी, अभीष्टमूर्ति करती है। पूजापद्धतिक आरम्भके पूर्व स्तोत्रोंको परम्परा ही भक्तिके क्षेत्र में विद्यमान थी। भक्त या श्रद्धालु पाठक स्तोत्र द्वारा भगवद्गुणोंका स्मरण कर अपनी आत्माको पवित्र बनाता है। यही कारण है कि भक्तामर, एकीभाव, कल्याणमन्दिर प्रति स्तोत्रोंके साथ भी चमत्कारपूर्ण आख्यान जुड़े हुए हैं । __ अतएव इन आख्यानोंमें तथ्यांश हो या न हो, पर इतना सत्य है कि एकाग्रतापूर्वक इन स्तोत्रोंका पाठ करनेसे आत्मशुद्धिके साथ मनोकामनाको पूति भी होती है । स्तोत्रोंके पढ़नेसे जो आत्मशुद्धि होती है, वही आत्मशुद्धि कामनापूर्तिका साधन बनती है। मानतुंग अपने समयके प्रसिद्ध आचार्य हैं और इनकी मान्यता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों में है। समय-विचार __मानतुंगके समय-निर्धारणमें उक्त विरोधी बाख्यानोंसे यह प्रकट होता है कि वे हर्ष अथवा भोजके समकालीन हैं। इन दोनों राजाओंमेंसे किसी एककी समकालीनता सिद्ध होनेपर मानतुगके समयका निर्णय किया जा सकता है। सर्वप्रथम हम यहाँ भोजकी समकालीनता पर विचार करेंगे।
भोजनामके कई राजा हुए हैं तथा भारतीय आख्यानोंमें विक्रमादित्य और भोजको संस्कृतकवियोंका आश्रयदाता एवं संस्कृत साहित्यका लेखक माना गया है।
श्रुतधर और पारस्वताचार्य : २७१