Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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थे। पहले इन्होंने एक दिगम्बर मुनिसे दीक्षा ली और इनका नाम चारुकीर्ति महाकीर्ति रखा गया। अनन्तर एक श्वेताम्बर सम्प्रदायको अनुयायिनी श्राविकाने उनके कमण्डलुके जलमें प्रसजीव बतलाये, जिससे उन्हें दिगम्बर चर्यासे विरक्ति हो गयी और जितसिंह नामक श्वेताम्बराचार्यके निकट दीक्षित होकर श्वेताम्बर साबु हो गये और उसी अवस्था में भक्तामरस्तोत्रको रचना की।
वि० सं० १३६१ के मेमतुगकृत 'प्रबन्धचिन्तामणि' ग्रन्यमें लिखा है कि मयूर और बाण नामक साला-बहनोई पंडित थे। वे अपनी विद्वत्तासे एक दुसरेके साथ स्पर्धा करते थे। एक बार बाण पंडित अपने बहनोईसे मिलने गया और उसके घर जाकर रातमें द्वार पर सो गया । उसकी मानवतो बहन रातमें रूठी हुई थी और बहनोई रातभर मनाता रहा । प्रातः होने पर मयूरने कहा-हे! तन्वंगी प्रायः सारी रात बीत चली, चन्द्रमा क्षीण-सा हो रहा है, यह प्रदीप मानो निद्राके अधीन होकर झूम रहा है, और मानको सीमा तो प्रणाम करने तक होतो है | अहो ! तो भी तुम क्रोध नहीं छोड़ रही हो?"
काव्यके तीन पाद बार-बार कहते सुनकर बापने चौथा चरण बनाकर कहा-हे चण्डि ! कुचोंके निकटवर्ती होनेसे तुम्हारा हृदय भी कठिन हो गया है।
गतप्राया रात्रिः कृशतनुशिः शीर्यत इव प्रदोपोऽयं निद्रावशमुपगतो धूणित इव । प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तयापि क्रुधमहो
कुचप्रत्यासत्या हृदयमपि ते चण्डि ! कठिनम् ।।' भाईके मुंहसे चौथा चरण सुनकर बहन लज्जित हो गयी और अभिशाप दिया कि तुम कुष्ठी हो जाओ। बाण पतिव्रताके शापसे तत्काल कुष्ठो हो गया। प्रातःकाल शालसे शरीर ढककर राजसभामें आया । मयूरने 'वरकोढ़ी' कहकर बाणका स्वागत किया । वाणने देवताराधनका विचार किया और सूर्यके स्तवन द्वारा कुष्ठरोग दूर किया । मयूरने भी अपने हाय-पैर काट लिये और चण्डिकाको
१. प्रभावकचरितके कथानक बाण और मयूरको ससुर और दामाद लिसा है तथा
उपर्युक श्लोकके चतुर्थ चरणमें "चण्डि के स्थानके "सुन" पाठ पाया जाता है। २. 'घरकोढ़ी' प्राकृत पदका पदच्छेद करने पर 'वरक ओढ़ी'-शाल ओढ़कर आये हो तथा 'बरकोड़ी' अच्छे कुष्त्री बने हो, वर्ष निकलता है।
श्रुतपर और सारस्वताचार्य : २६९