Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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दशरथ रामके वियोगमें अपने प्राणोंका त्याग नहीं करते, बल्कि निर्भयareकी तरह दीक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करते हैं। कैकेयी ईर्ष्यावश भरतको राज्य नहीं दिलाती, किन्तु पति और पुत्र दोनोंको दीक्षा ग्रहण करते देखकर उसको मानसिक पीड़ा होती है । अतः वात्सल्यभाव से प्रेरित हो अपने पुत्रको गृहस्थी में बाँध रखना चाहती है। राम स्वयं वन जाते हैं, वे स्वयं भरतको राजा बनाते हैं। रामके वनसे लौटने के पश्चात् केकयो प्रब्रजित हो जाती है और रामसे कहती है कि भरत को अभी बहुत कुछ सीखना हैं । भरतके दीक्षित हो जानेपर वह घर में नहीं रह पाती, इसी कारण शान्तिलाभके लिए वह दीक्षित होती है। इस प्रकार 'पउमचरियं" के सभी पात्रोंका उदात्त चरित्र अंकित किया गया है ।
यह प्राकृत का सर्वप्रथम चरित महाकाव्य है । इसकी भाषा महाराष्ट्रीय प्राकृत है, जिसपर यत्र-तत्र अपभ्रंशका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । भाषा में प्रवाह तथा सरलता है। वर्णनानुकूल भाषा खोज, माधुर्य और प्रसाद गुण से युक्त होती गयी है । उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, काव्यलिङ्ग, श्लेष मादि अलंकारोंका प्रचुर प्रयोग पाया जाता है । वर्णन संक्षिप्त होनेपर भी मार्मिक है, जैसे दशरथके कंचुकीको वृद्धावस्था, सीताहरणपर रामका क्रन्दन, युद्धके पूर्व राक्षस सैनिकों द्वारा अपनी प्रियतमाओंसे विदा लेना, लंकामें वानर सेनाका प्रवेश होनेपर नागरिकों को घबड़ाहट और भागदौड़, लक्ष्मणकी मृत्युसे रामकी उन्मत्त अवस्था आदि । माहिष्मतीके राजाकी नर्मदामें जलक्रीड़ा तथा कुलाङ्गनाओं द्वारा गवाक्षोंसे रावणको देखनेका वर्णन भी मनोहर है ।
समुद्र, वन, नदी, पर्वत, सूर्योदय, सूर्यास्त, ऋतु, युद्ध आदिके वर्णन महाकाव्योंके समान है । घटनाओंकी प्रधानता होनेके कारण वर्णन लम्बे नहीं हैं । भावात्मक और रसात्मक वर्णनोंकी कमी नहीं है ।
इस चरित महाकाव्यको निम्न प्रमुख विशेषताएं हैं(१) कृत्रिमताका अभाव ।
(२) रस, भाव और अलंकारोंकी स्वाभाविक योजना |
(३) प्रसंगानुसार कर्कश या कोमल ध्वनियों का प्रयोग ।
(४) भावाभिव्यक्ति में सरलता और स्वाभाविकताका समावेश |
(५) चरितोंकी तर्कसंगत स्थापना ।
(६) बुद्धिवादकी प्रतिष्ठा ।
(७) उदात्तताके साथ चरितोंमें स्वाभाविकताका समवाय ।
(८) कथाके निर्वाह के लिये मुख्य कथाके साथ अवान्तर कथाओं का प्रयोग |
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : २६१