Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
रागीके ज्ञान और संयमका विवेचन कई प्रकारसे किया है। वीतरागीका शासन परस्पर विरोधरहित और सभी प्राणियोंके लिए हितसाधक होता है । अर्हन्त परमेष्ठी उच्चकोटिके तत्त्वचिन्तक एव स्याद्वादनयगर्भित उपदेश देनेबायें हैं । अतएव मिरा की शरण कर की है, उसे रागादिजन्य वेदना व्याप्त नहीं करती। राग, द्वेष और मोह ही संसार में भय उत्पन्न करनेवाले हैं, जिसने उक्त विकारोंको नष्ट कर दिया है, वही त्रिभुवनाधिपति होता है । समस्त आरम्भ और परिग्रहके बन्बनसे मुक्त होनेके कारण वीतरागी अर्हन्स में हो आप्तता रहती है। एकान्तवादसे दुष्ट चित्तवाले व्यक्ति आपके आनन्त्य गुणोंकी थाह नहीं पा सकते हैं। इस सन्दर्भ में यह स्मरणीय है कि यहाँ तैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि मतों और उनके अभिमत आपको भी समीक्षा की गयी है । सर्वज्ञसिद्धिके साथ सम्रन्यता और कला - हारका निरसन भी किया गया है। रचना बड़ी ही भावपूर्ण और प्रौढ़ है ।
२. त्रिलक्षणकदन – इस ग्रन्थम बौद्धों द्वारा प्रतिपादित पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्य और विपक्षाद्व्यावृतिरूप हेतुके रूप्यका खण्डन कर 'अन्यथानुपपन्नत्व' रूप हेतुका समर्थन किया गया है। इस ग्रन्थ के उद्धरण शान्त रक्षितके तत्त्वसंग्रह, अकलकके सिद्धिविनिश्चय तथा न्यायविनिश्चय, विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक एवं उत्तरवर्ती आचार्यो के ग्रन्थोंमें पाये जाते है ।
प्रतिभा एवं वैष्य - पात्रकेसरी न्यायके निष्णात विद्वान् थे । अतः इनके स्तोत्र में भी दार्शनिक मान्यताएँ समाहित हैं । संस्कृतिके मूलस्रोत श्रद्धा, ज्ञान और चरित्र ही हैं। अतः नेयायिक कवि भी प्रधानतः संस्कृति के उन्नायक होते हैं । ये तर्कपूर्ण शेशीमें विभिन्न मान्यताओंकी समीक्षा करते हुए उन्नत विचारों और उदात्त भावोंका समावेश करते हैं। जिस आराध्य के प्रति ये
ज्ञात होते है, उसके गुणों को दर्शनकी कसौटी पर कसकर काव्य - भावनाके रूप में प्रस्तुत करते हैं । पात्रस्वामी में दार्शनिक विचारोंके साथ कोमल तथा भक्तिपूरित हृदयकी अभिव्यक्ति वर्तमान है । यद्यपि दीनताको भावना कहीं भी नहीं है तो भी अर्हन्तकी दिव्य विभूतियोंके दर्शनसे कविके रूपमें आचार्य चकित हैं। उनकी वीतरागता के प्रति अपार श्रद्धा है। अतः भक्त कविके समान भक्तिविभोर हो आराध्यके चरणों में अपनेको समर्पित करनेकी इच्छा व्यक्त करते हैं। प्रमाण, हेतु, नथ, और स्याद्वादका विवेचन भी सर्वत्र होता गया है।
भूत चैतन्यवादका निरसन करते हुए कविने उसके सिद्धान्तपक्षके स्फोटनमें प्रबन्धात्मकता प्रदर्शित की है। इसी प्रकार सांख्य- सिद्धान्त के प्रकृति - पुरुष - वादमीमांसा में भी प्रबन्धसूत्र विद्यमान हैं । आराध्य के स्वरूपविवेचन में कविने तर्कके साथ इतिवृत्तात्मकता का सफल निर्वाह किया है।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २४१
१६