Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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बजोव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा ओर माक्ष इ. सात तत्वांका स्वरूप भी बणित है । जीवसमास तथा मार्गणाके निरूपणके साथ. द्वादशव्रत, पात्रोंके भेद. दाताके सात गुण, दानवी श्रेष्ठता, माहात्म्य, सल्लखना, दश धर्म, सम्यक्त्व के आठ अंग, बारह प्रकारके तप एवं ध्यानके भेद-प्रभेदोंका निरूपण किया गया है। आचार्यका स्वरूप एवं आत्मशुद्धिको प्रक्रिया इस ग्रन्थमें विस्तारपूर्वक णित है।
अध्र वानप्रक्षामें ४-२२ गाथाए हैं। अशरणानुप्रक्षाम २३-३१; संसारानुप्रेक्षामें ३२-७३; एकत्वानुप्रक्षामें ७४-७९; अन्यत्वानुशाम ८०-८२: अशुचित्वानुप्रक्षामै ८३-८७; यासवानुप्रक्षाम ८८-१४; संवरानुक्षामें ९५-१०१, निर्जरानुक्षामें १०२-११४; लोकानुप्रेक्षाम ११५-२८३; बोधिदुर्लभानुप्रेक्षामें २८४-३०१ एवं धर्मानुप्रंक्षामें ३०२-४३५ माथाएं हैं । ४३६ माथासे अन्ततक द्वादश तपोंका वर्णन आया है । अध्र वानुप्रेक्षान समस्त वस्तुओंकी अनित्यता बतलाते हए वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक कहा है। सामान्य द्रव्यरूप है, और विशेष गुण पर्यायरूप । द्रव्यरूपसे वस्तु नित्य है किन्तु पर्यायकी अपेक्षासे वस्तु अनित्य है । यह संसारका प्राणी पर्यायबुद्धि है, जिससे पर्यायोंको उत्पन्न और नष्ट होते देखकर हर्ष विषाद करता है, और उसको नित्य रखना चाहता है । यह शरीर जीव-पुद्गलको संयोग जनित पर्याय है धन-धान्यादिक पुद्गल परणुओंको स्कन्ध पर्याय है। इनके संयोग और वियोग नियमसे अवश्य हैं, जो स्थिरताको वुद्धि करता है, वह माहनित भावके कारण संक्लेश प्राप्त करता है।
ससारको समस्त अवस्थाएं विरोधी भावोंसे युक्त हैं । जब जन्म होता है, तब उसे स्थिर समझकर हर्ष उत्पन्न होता है, मरण होनेपर नाश मानकर शोक करता है । इस प्रकार इष्टकी प्राप्तिमें हर्ष, अप्राप्ति में विषाद तथा अनिष्ट प्राप्तिमें विषाद, अप्राप्तिमें हर्ष करता है, यह भी सब मोहका माहात्म्य है। आचार्य सादृश्यमूलक उपमा प्रस्तुतकर परिवार, वन्धुवर्ग, स्त्रो, पुत्र, मित्र, धनधान्यादिको अनित्यताका चित्रण करते हुए कहते है
अधिरं परियण-सवणं, पुत्त-कलत्तं सुमित्त-लावण्णं ।
गिह-गोहपाइ सन्च, णव-धण-विदेण सारित्थं'। परिवार, बन्धुवर्ग, पुत्र, स्त्री, मित्र, सौन्दर्य, गृह, धन, पशु सम्पत्ति इत्यादि सभी वस्तुएं नवीन मेध-समहके ममान अस्थिर हैं । इन्द्रियोंके विपय, भृत्य, अश्व, गज, रथ आदि सभी पदार्थ इन्द्रधनुषके समान अस्थिर हैं ।
पुण्यके उदयसे प्राप्त होने वाली चक्रवर्तीको लक्ष्मी भी नित्य नहीं हैं, तब १. स्वामिफुमार, द्वादशानुप्रेक्षा, गापा ६ ।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : १३९.