Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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न्यत् पापम्" कहकर पापप्रकृतियों की गणना की है। मूलपात्रतियोंकी परिगणना करानेवाला कोई सूत्र नहीं आया है।
नवम अध्यायके अनेक सूत्रोंमें शाब्दिक भेद पाधा जाता है । प्रथम सूत्रपाठयें “सामायिक-छेदोपस्थापना - परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय यथाख्यातमिति चारित्रम् ' [ ९।१८] सूत्र आया है । द्वितीय सूत्रपाठ में इस सूत्र का रूप प्रारम्भमं ज्यों-का-त्यों है, पर अन्त में 'यथाख्यातानि चारित्रम्' कर दिया गया है। ध्यानका स्वरूप घतलाते हुए प्रथम सूत्रपाठ में "उत्तम संहननस्यैकाग्र चिन्ता निरोधी ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्" सूत्र आया है। पर द्वितीय सूत्रपाठ में इस मूत्रके दो रूप उपलब्ध होते है । प्रथम सूत्र "उत्तम संहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्" [९/२७] और द्वितीय सूत्र "आ मुहूर्तात्" [२८] प्राप्त होता है। इस प्रकार एक हो सूत्र दो सूत्रोंमें विभक्त है। धर्मध्यानका कथन करने वाले प्रसंग में धर्मध्यानके स्वामीको लेकर दोनों सूत्रपाठोंमें मौलिक अन्तर है । प्रथम सूत्रपाठ धर्मध्यानके प्रतिपादक "आज्ञापाय- विपाक - संस्थान विचयाय धयम्" [ ९।३६ ] सूत्रके अन्तमें स्वाभोका विधायक 'अप्रमत्तसंयत्तस्य' अंग नहीं है । जबकि द्वितीय सूत्रपाठ में है तथा दूसरे सूत्रपाठमें इस सूत्र के बाद जो उपशान्तक्षीणकषाययोश्च" [१९६३८ ] सूत्र आया है वह भी प्रथम सूत्रपाठ में नहीं है ।
दशम अध्याय में प्रथम सूत्रपाठका "बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्या कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः " [१०/२] सूत्र द्वितीय सूत्रपाठ "वन्वहेत्वनावनिर्जराभ्याम्" [१०/२] तथा " कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः " इन दो सूत्रोंके रूपमें मिलता है । इसी प्रकार प्रथम सूत्रपाठके दशम अध्यायके तृताय - चतुर्थ सूत्र द्विताय सूत्रपाठ में एक सूत्र के रूपमें संयुक्त मिलते हैं । "ओपशमिकादिभव्यत्वानाञ्च |१०|३] सूत्रके स्थानपर "औपशमिका दिभव्यत्वाभावाच्चान्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्य:" [१०१४ | पाठ मिलता है । प्रथम सूत्रपाठके सप्तम और अष्टम सूत्र द्वितीय सूत्रपाठ नहीं हैं। उनकी पूर्ति भाष्य में की गयी है ।
इस प्रकार दोनों सूत्रपाठोंका समोक्षात्मक अध्ययन करने से अवगत होता है कि गुद्धपिच्छाचायके मूल सूत्रपाठ वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखते समय मूल सूत्रपाठ यत्किञ्चित् अन्तर कर किन्हीं सूत्रोंको छोड़ दिया और कुछ नये सूत्र जोड़ दिये हैं । तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका अध्ययन करनेसे यह भी स्पष्ट होता है कि भाष्य में जो सूत्रपाठ आये है उनमेंसे सिद्धसेन की टीका में अनेक पाठभेदों का उल्लेख किया गया है । अतः भाष्यसम्मत सूत्रपाठले सिद्धसेनगणि और हरिभद्रके सूत्रपाठोंमें अन्तर पाया जाता है ।
तर और सारस्वताचार्य : १६७