Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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इस पद्यको लेकर विवाद है । पंडित सुखलालजीका मत है कि यह न्यायाबतारका मल पद्य है। वहींसे यह रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें गया है। पर विचार करनेसे यह तर्क संगत प्रतीत नहीं होता है। यतः रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें जिस स्थान पर यह पच आया है वहीं वह क्रमबद्धरूपमें नियोजित है। समन्तभरने सम्यग्दर्शनको परिभाषा जादा दर आप्तमाम मौरोमनने श्रमानो सम्यग्दर्शन कहा है। इस प्रसंगमें उन्होंने सर्व प्रथम आप्तका स्वरूप बतलाया है और तत्पश्चात् आगमका | शास्त्रका स्वरूप बसलाते हुए उक्त पद्य लिखा है। इसके अनन्तर तपोभृतका स्वरूप बतलाया है। अत: क्रमबद्धताको देखते हुए उक्त पद्यका उद्भवस्थान समन्तभद्रका रत्नकरण्डश्रावकाचार है। वह अन्यत्र से उद्धत नहीं है। परन्तु यह स्थिति न्यायावतारमें नहीं है। न्यायावतारमें स्वार्थानुमानका लक्षणनिरूपणके पश्चात् शाब्द-आगम प्रमाणका कथन करनेके लिए एक पद्य, जिसमें शाब्दका पूरा लक्षण आ गया है, निबद्ध कर इस पद्यको उपस्थित किया है, जिसे वहाँसे अलग कर देनेपर ग्रन्थका भङ्ग भी नहीं होता। परन्तु रत्नकरण्डनावकाचारमेंसे उसे हटा देने पर ग्रन्ध-भङ्ग हो जाता है। अत: इस पद्यको न्यायाक्तारमै मूल ग्रन्थरचयिताका नहीं माना जा सकता है । न्यायावतारमें शाब्दप्रमाणका लक्षण निम्न प्रकार है
दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात्परमार्थाभिधायिनः ।
तत्त्वग्नाहितयोत्पन्नं मानं शाब्दं प्रकीर्तितम् । इस पद्यके पश्चात् ही उक्त 'आप्तोपज' आदि पद्य दिया है. जो व्यर्थ, पुनरुत और अनावश्यक है। आचार्य श्री जुगलकिशोरने अपने 'स्वामी समन्तभद्र' शीर्षक प्रबन्ध विस्तारसे इसपर विचार किया है। अतएव न्यायावतारमें उल्लिखित उक्त पथके आधार पर समन्तभद्रको उसके कर्ता सिद्धसेनसे उत्तरवर्ती बतलाना समुचित नहीं है।
स्वामी समन्तभद्रके समयपर विचार करनेवाले जैन विचारकोंमें दो विचारधाराएं उपलब्ध हैं। प्रथम विचारधाराके प्रवर्तक पंडित नाथरामजी प्रेमी हैं और उसके समर्थक डॉ० हीरालालजी आदि हैं। प्रेमीजीने स्वामी समन्त. भवका समय छठी शताब्दी माना है। उनका तर्क है कि 'मोक्षमार्गस्य नेतार' मंगलाचरण सूत्रकार उमास्वामीका न होकर सर्वार्थसिद्धिटीकाकार देव. १. रत्नकरण्यायकाचार, पब ।। २. न्यायावतार, सम्पादक ग. पी. एल. पंच, सन् १९२८ । ३, जैन साहित्म और इतिहास, पृ० ४५,४६ । १८२ : तीपंकर महावीर और उनकी आपार्य-परम्परा