Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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हे भगवान् ! जो मैं नाना प्रकारके तिरस्कारोंका पात्र हो रहा हूँ, उससे स्पष्ट पता चलता है कि मैंने आपके चरणोंकी पूजा नहीं की, क्योंकि आपके चरणोंके पुजारियोंका कभी किसी जगह भी तिरस्कार नहीं होता ।
भावशून्य भक्तिको निरर्थक और भावपूर्ण भक्तिको सार्थक बतलाते हुए कवि कहता है। आकणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेनजनबान्धव! दुःखपात्रं यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या ।' ___ हे भगवन् ! मैंने आपका नाम भी सुना, पूजा भी की और दर्शन भी किये, फिर मी दुःख मेरा पिण्ड नहीं छोड़ता है । इसका कारण यही है कि मैंने भक्तिभावपूर्वक आपका ध्यान नहीं किया । केवल आडम्बरसे ही उन कामोंको किया है, न कि भावपूर्वक । यदि भावपूर्वक भक्ति, अर्षा या स्तवन करता सो संसारके ये दुःख नहीं उठाने पड़ते 1 इस स्तोत्र (पख ३१, ३२, ३३) में 'दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य पार्श्वनाथके उपसर्गोका वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है।
संक्षेप में यह स्तोत्र अत्यन्त सरस और भावमय है। प्रत्येक पासे भक्तिरस निस्यूत होता है। प्रतिमा
सिद्धसेन दार्शनिक और कवि दोनों हैं। दोनों में उनकी गति अस्खलित है । जहाँ उनका काव्यत्त्व उच्च कोटिका है वहां उनका उसके माध्यमसे दार्शनिक विवेचन मी गम्भीर और तत्त्वप्रतिपादनपूर्ण है।
उपजाति, शिखरणी, इन्द्रवज्या, उपेन्द्रवजा, वंशस्य, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका एवं आर्या छन्दोंका व्यवहार किया गया है । ओजगुण इनकी कविताका विशेष उपकरण है !
देवनन्दि पूज्यपाद उत्यामिका
कवि, वैयाकरण और दार्शनिक इन सोनों व्यक्तित्वोंका एकल समवाय देवनम्दि पूज्यपादमें पाया जाता है । आदिपुराणके रचयिता आचार्य जिनसेमने इन्हें कवियोंमें तीर्घकृत लिखा है
कवीनां सार्थकुद्धवः कि ठरां तत्र वर्ण्यते ।
विदुषां वाल्मलध्वंसि तीर्थ यस्य वयोमयम् ॥ मादिपुराण, १५२ १. कायापन्दिर, पच ३८ ।
श्रुतगर मोर सारस्वताचार्य : २१७