Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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मन:
प्रथम अध्यायके षष्ठ सूत्र " प्रमाणनयैरधिगमः" (१६) की व्याक्या करते हुए पूज्यपाद स्वामीने प्रमाणके स्वार्थ और परार्थं भेद करके मति, अवधि, पर्यय और केवल इन चार ज्ञानोंको स्वार्थप्रमाण बतलाते हुए श्रुतज्ञानको स्वार्थ और परार्थ दोनों बतलाया है तथा उसीका भेद नय हैं - यह भी बताया है। इसी सूत्रकी व्याख्या में 'उक्तञ्च' लिखकर "सकलादेश: प्रमाणाधीनः विकलादेशी नयाधीनः " - वाक्य उद्धृत किया है। इस प्रकार प्रमाणके स्वार्थं और परार्थं भेद तथा सकलादेश और विकलादेशकी चचां इन्हींके द्वारा प्रस्तुत की गयी है। इसी अध्यायमें "सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शन कालान्तरभावाल्पबहुत्वे रच” ( ११८ ) - की वृत्ति षट्खण्डागमके जीवद्वाणसूत्रोंके आधारपर लिखी गयी है । इसमें सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगोंके द्वारा चौदह मार्गणाओंमें गुणस्थानोंका विवेचन बहुत सुन्दर रूपमें किया है ।
प्रमाणकी चर्चा में नैयायिक और वैशेषिकोंके सन्निकर्ष-प्रामाण्यवादका एवं सांख्योंके इन्द्रिय-प्रामाण्यका निरसन कर ज्ञानके प्रामाण्यकी व्यवस्था की है। ज्ञानको स्वपरप्रकाशक सिद्ध कर चक्षुः के प्राप्यकारित्वका आमम और युक्तियोंसे खण्डन कर उसे अप्राप्यकारी सिद्ध किया गया है। “सदसतोरविशेषाद्यदुच्छोपलब्धेरन्मत्तवत् (१।३२ ) की वृत्ति में कारणविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यासकी चर्चा करते हुए योग, सांख्य, बौद्ध और चार्वाक आदिके मतोंका निर्देश किया है । अन्तिम सूत्र में किया गया नयोंका विवेचन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है ।
द्वितीय अध्यायकी व्याख्या में भी अनेक विशेषताएँ और मौलिकताएँ उपलब्ध है। तृतीय सूत्रकी व्याख्यामें चारित्रमोहनीयके 'कषायवेदनीय' और 'नोकषाघवेदनीय' ये दो भेद बतलाए हैं तथा दर्शनमोहनोधके सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन भेद बतलाए हैं । इन सात प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व होता है । यह सम्यक्त्व अनादिमिथ्यादृष्टि भव्यके कर्मोदयसे प्राप्त कल्पता के रहते हुए किस प्रकार सम्भव है ? इस प्रश्नके उत्तर में आचार्यने बतलाया है - 'काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् ' - काललब्धि आदिके निमित्तसे इनका उपशम होता है । अन्य आगम ग्रन्थों में क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, काललब्धि और प्रायोग्यलब्धि ये पाँच लब्धियाँ बत्तलायी हैं। आचार्यं पूज्यपादने काललब्धिके साथ लगे आदि शब्दसे जातिस्मरण आदिका निर्देश किया है और काललब्धिके कर्मस्थितिका काललब्धि और भवापेक्षया कालforcinा निर्देश किया है। यह विषय मौलिक और सैद्धान्तिक है ।
तर और सारस्वताचार्य : २२७