Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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लिए 'मम्', आत्मनेपदके लिए 'द:', अकर्मक के लिए 'त्रिः', संयोगके लिए 'स्फः', सवर्णके लिए ' स्वम्', तद्धितके लिए 'हृत्', लोपके लिए 'खम्', लुप्के लिए 'उस्' लुक्के लिए 'उप्' एवं अभ्यासके लिए 'च' संज्ञाका विधान किया गया है । समासप्रकरणमें अव्ययीभाव के लिए 'ह', तत्पुरुषके लिए 'षम्', कर्मधारयके लिये 'यः, द्विगुके लिए 'र' और बहुव्रीहिके लिए 'वम्' संज्ञा बतलायी गयी है । जैनेन्द्रका यह संज्ञाप्रकरण अत्यन्त सांकेतिक है। पूर्णतया अभ्यस्त हो जानेके पश्चात् ही शब्दसाधुत्व में प्रवृत्ति होती है। यह सत्य है कि इन सज्ञाओं में लाघवनियमका पूर्णतया पालन किया गया है।
जैनेन्द्र व्याकरण में सन्धिके सूत्र चतुर्थ और पञ्चम अध्यायमें आये हैं। 'सन्धी' ४|३|६० सूत्रको सन्धिका अधिकारसूत्र मानकर सन्धिकार्य किया गया है, पश्चात् छकार के परे सन्धिमें तुगागमका विधान किया है। तुगागम करनेवाले ४/३/६१ से ४|३|६४ तक चार सूत्र है। इन सूत्रों द्वारा ह्रस्व, आंग, मांग तथा दी संज्ञकोंसे परे तुगागम किया है और 'त' का 'च' बनाकर गच्छति, इच्छति, आच्छिप्रति माच्छिदत् म्लेच्छति कुवलीच्छाया आदि प्रयोगोंका साधुत्व प्रदर्शित किया है । देवनन्दिका यह विवेचन पाणिनिके तुल्य है। अनन्तर 'यण् ' सन्धिके प्रकरण में 'अचीकोयण् ४।३।६५ सूत्रद्वारा इक् - इ, उ, ऋ, लृको क्रमश: यणादेश - य, चर,लका नियमन किया है। देवनन्दिका यह प्रकरण पाणिनिके समान होने पर भी प्रक्रियाको दृष्टिसे सरल है। इसी प्रकार 'अयादि' सन्धिका ४।३।६६,४।३।६७ द्वारा विधान किया है। वृत्तिकारने इन दोनों सूत्रोंकी व्याख्यामें कई ऐसी नयी बातें उपस्थित की हैं, जिनका समावेश कात्यायन और पतञ्जलिके वचनोंमें किया जा सकता है । जेनेन्द्रकी सन्धिसम्बन्धी तीन विशेषताएं प्रमुख हैं
१. उदाहरणोंका बाहुल्य - चतुर्थ, पंचम शताब्दी में प्रयुक्त होनेवाली भाषाका समावेश करने के लिये नये-नये प्रयोगोंको उदाहरण के रूपमें प्रस्तुत किया गया है । यथा
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पव्यम्, अवश्यपौव्यम्, नयनम्, गोर्योनम् आदि ।
२. लाघव या संक्षिप्तिकरण के लिये सांकेतिक संज्ञाओं का प्रयोग |
३. अधिकारसूत्रों द्वारा अनुबन्धोंकी व्यवस्था |
सुबन्त प्रकरण में अधिक विशेषताओंके न रहनेपर भी प्रक्रिया सम्बन्धी सरलता अवश्य विद्यमान है। जिन शब्दोंके साधुत्वके लिये पाणिनिने एकाधिक
१-२. ४४३।६८ ।
३-४. ४।३।६७ १
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २३१